"नरोत्तम दास ठाकुर कहते हैं, तांडेर चरण-सेवी भक्त-सने वास, जनमे जनमे मोर ई अभिलाष। भक्तों के साथ रहना। यदि हम कर्मी या ज्ञानी या योगियों के साथ संगति करते हैं, तो यह संभव नहीं होगा। तब आप गुमराह हो जाएंगे। इसलिए कहा जाता है कि मद-देव-संगत। मद-देव-संगत का अर्थ है वह जिसने कृष्ण के चरण कमलों की पूर्ण शरण ले ली है, मद-देव। और भी बहुत हैं। बेशक कोई भी देव नहीं है; देव कृष्ण हैं। लेकिन दूसरे भी हैं, देवता। तैंतीस करोड़ देवता हैं। लेकिन कृष्ण विशेष रूप से मद्-देव कहते हैं, जिसने कृष्ण को एकमात्र पूजनीय देवता मान लिया है। सर्व-धर्मान् परित्यज्य माम् एकम् (भ.गी. १८.६६), अर्थात्। जिसने ऐसा व्रत लिया है, कि कृष्णस तु भगवान् स्वयं (श्री. भा. १.३.२८), "मैं कृष्ण की शरण ग्रहण करूँगा," यह बहुत आसान बात नहीं है। लेकिन यही अंतिम लक्ष्य है।"
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