"यह हमारी स्थिति है, कि मैं भगवान का अभिन्न अंग हूँ। भगवान प्रसन्न हैं, आनंदमय हैं। इसलिए अभिन्न अंग आनंदमय होना चाहिए। लेकिन, मनः षष्ठानिन्द्रियाणि प्रकृति-स्थानि कर्षति। मैं इस भौतिक संसार में आया हूँ। मैं मन से और इंद्रियों से कार्य करते हुए इतने सारे वादों की रचना कर रहा हूँ, और संघर्ष है। यही है ... सब कुछ वहाँ है। मनः षष्ठानिन्द्रियाणि प्रकृति-स्थानि कर्षति (भ.गी. १५.७)। प्रकृति-स्थानि, इस भौतिक वातावरण में स्थित होने के कारण, वह बस है। संघर्ष करना। इसलिए हम समाधान दे रहे हैं, "आप यह संघर्ष छोड़ दें। घर वापस जाएँ, भगवत धाम वापस जाएँ।"
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