"यस्य देवे परा भक्तिर यथा देवे तथा गुरौ (श उ ६ २३)। गुरु के प्रति वैसी ही शरणागति होनी चाहिए। यथा देवे, जैसे तुम कृष्ण का शरण लेते हो वैसे ही गुरु का भी शरण लेना होगा। फिर तुम्हारा जीवन सार्थक है। यथा देवे तथा गुरौ, तस्यैते कथिता ही अर्थाः प्रकाशन्ते। तब अपने आप इन शास्त्रों का आशय प्रकट होगा। इसके अतिरिक्त तुम प्रत्येक दिन गा रहे हो, गुरु मुख-पद्म-वाक्य, चित्तेते कोरिया ऎक्य, आर न करिहो मने आश। बस, और कुछ नहीं। यही रहस्य है जीवन को सफल बनाने का। गुरु मुख-पद्म-वाक्य, चित्तेते कोरिया ऎक्य, आर न करिहो मने आश। मनगढंत नियम मत बनाओ, नालायक। फिर सर्वनाश हो जायेगा।"
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