"प्रेम भक्ति जाहा होइते, अविद्या विनाश जाते, दिव्य ज्ञान। तो क्या है वह दिव्य ज्ञान? दिव्य का अर्थ है आध्यात्मिक, भौतिक नहीं। तपो दिव्यम (श्री भ ५.५.१). दिव्यम का तात्पर्य है की हम जड़ और चेतन पदार्थो का मिश्रण है। आत्मा दिव्य है, भौतिक संसार से परे है। अपरेयम इतस तु प्रकृतिम विद्धि में परा (भ गी ७.५). वही परा प्रकृति, उत्तम प्रकृति है। यदि भौतिक पहचान से ऊपर कुछ है तो उसे समझने के लिए उत्तम ज्ञान की आवश्यकता है। दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशितो। तो यही गुरु का कर्तव्य है, उस दिव्य ज्ञान को जाग्रत करना। वे इस दिव्य ज्ञान को प्रकाशित करते है इसलिए गुरु की उपासना करना आवश्यक है।"
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