HI/BG 1.29

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 29

वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ॥२९॥

शब्दार्थ

वेपथु:—शरीर का कम्पन; च—भी; शरीरे—शरीर में; मे—मेरे; रोम-हर्ष:—रोमांच; च—भी; जायते—उत्पन्न हो रहा है; गाण्डीवम्—अर्जुन का धनुष, गाण्डीव; स्रंसते—छूट या सरक रहा है; हस्तात्—हाथ से; त्वक्—त्वचा; च—भी; एव—निश्चय ही; परिदह्यते—जल रही है।

अनुवाद

मेरा सारा शरीर काँप रहा है, मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं, मेरा गाण्डीव धनुष मेरे हाथ से सरक रहा है और मेरी त्वचा जल रही है |

तात्पर्य

शरीर में दो प्रकार का कम्पन होता है और रोंगटे भी दो प्रकार से खड़े होते हैं | ऐसा या तो आध्यात्मिक परमानन्द के समय या भौतिक परिस्थितियों में अत्यधिक भय उत्पन्न होने पर होता है | दिव्य साक्षात्कार में कोई भय नहीं होता | इस अवस्था में अर्जुन के जो लक्षण हैं वे भौतिक भय अर्थात् जीवन की हानि के कारण हैं | अन्य लक्षणो से भी यह स्पष्ट है; वह इतना अधीर हो गया कि उसका विख्यात धनुष गाण्डीव उसके हाथों से सरक रहा था और उसकी त्वचा में जलन उत्पन्न हो रही थी | ये सब लक्षण देहात्मबुद्धि से जन्य हैं |