HI/BG 1.42

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 42

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥४२॥

शब्दार्थ

दोषै:—ऐसे दोषों से; एतै:—इन सब; कुल-घ्नानाम्—परिवार नष्ट करने वालों का; वर्ण-सङ्कर—अवांछित संतानों के; कारकै:—कारणों से; उत्साद्यन्ते—नष्ट हो जाते हैं; जाति-धर्मा:—सामुदायिक योजनाएँ; कुल-धर्मा:—पारिवारिक परम्पराएँ; च—भी; शाश्वता:—सनातन।

अनुवाद

जो लोग कुल-परम्परा को विनष्ट करते हैं और इस तरह अवांछित सन्तानों को जन्म देते हैं उनके दुष्कर्मों से समस्त प्रकार की सामुदायिक योजनाएँ तथा पारिवारिक कल्याण-कार्य विनष्ट हो जाते हैं |

तात्पर्य

सनातन-धर्म या वर्णाश्रम-धर्म द्वारा निर्धारित मानव समाज के चारों वर्णों के लिए सामुदायिक योजनाएँ तथा पारिवारिक कल्याण-कार्य इसलिए नियोजित हैं कि मनुष्य चरम मोक्ष प्राप्त कर सके | अतः समाज के अनुत्तरदायी नायकों द्वारा सनातन-धर्म परम्परा के विखण्डन से उस समाज में अव्यवस्था फैलती है, फलस्वरूप लोग जीवन के उद्देश्य विष्णु को भूल जाते हैं | ऐसे नायक अंधे कहलाते हैं और जो लोग इनका अनुगमन करते हैं वे निश्चय ही कुव्यवस्था की ओर अग्रसर होते हैं |