HI/BG 1.44

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 44

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥४४॥

शब्दार्थ

अहो—ओह; बत—कितना आश्चर्य है यह; महत्—महान; पापम्—पाप कर्म; कर्तुम्—करने के लिए; व्यवसिता:—निश्चय किया है; वयम्—हमने; यत्—क्योंकि; राज्य-सुख-लोभेन—राज्य-सुख के लालच में आकर; हन्तुम्—मारने के लिए; स्वजनम्—अ पने सम्बन्धियों को; उद्यता:—तत्पर।

अनुवाद

ओह! कितने आश्चर्य की बात है कि हम सब जघन्य पापकर्म करने के लिए उद्यत हो रहे हैं | राज्यसुख भोगने कि इच्छा से प्रेरित होकर हम अपने सम्बन्धियों को मारने पर तुले हैं |

तात्पर्य

स्वार्थ के वशीभूत होकर मनुष्य अपने सगे भाई, बाप या माँ के वध जैसे पापकर्मों में प्रवृत्त हो सकता है | विश्र्व के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं | किन्तु भगवान् का साधु भक्त होने के कारण अर्जुन सदाचार के प्रति जागरूक है | अतः वह ऐसे कार्यों से बचने का प्रयत्न करता है|