HI/BG 10.19
श्लोक 19
- श्रीभगवानुवाच
- हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
- प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥१९॥
शब्दार्थ
श्री-भगवान् उवाच—भगवान् ने कहा; हन्त—हाँ; ते—तुमसे; कथयिष्यामि—कहूँगा; दिव्या:—दैवी; हि—निश्चय ही; आत्म-विभूतय:—अपने ऐश्वर्यों को; प्राधान्यत:—प्रमुख रूप से; कुरु-श्रेष्ठ—हे कुरुश्रेष्ठ; न अस्ति—नहीं है; अन्त:—सीमा; विस्तरस्य—विस्तार की; मे—मेरे।
अनुवाद
श्रीभगवान् ने कहा – हाँ, अब मैं तुमसे अपने मुख्य-मुख्य वैभवयुक्त रूपों का वर्णन करूँगा, क्योंकि हे अर्जुन! मेरा ऐश्र्वर्य असीम है |
तात्पर्य
कृष्ण की महानता तथा उनका ऐश्र्वर्य को समझ पाना सम्भव नहीं है | जीव की इन्द्रियाँ सीमित हैं, अतः उनसे कृष्ण के कार्य-कलापों की समग्रता को समझ पाना सम्भव नहीं है | तो भी भक्तजन कृष्ण को जानने का प्रयास करते हैं, किन्तु यह मानकर नहीं कि वे किसी विशेष समय में या जीवन-अवस्था में उन्हें पूरी तरह समझ सकेंगे | बल्कि कृष्ण के वृत्तान्त इतने आस्वाद्य हैं कि भक्तों को अमृत तुल्य प्रतीत होते हैं | इस प्रकार भक्तगण उनका आनन्द उठाते हैं | भगवान् के ऐश्र्वर्यों तथा उनकी विविध शक्तियों की चर्चा चलाने में शुद्ध भक्तों को दिव्य आनन्द मिलता है, अतः वे उनको सुनते रहना और उनकी चर्चा चलाते रहना चाहते हैं | कृष्ण जानते हैं कि जीव उनके ऐश्र्वर्य के विस्तार को नहीं समझ सकते, फलतः वे अपनी विभिन्न शक्तियों के प्रमुख स्वरूपों का ही वर्णन करने के लिए राजी होते हैं | प्राधान्यतः शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं, जबकि उनके स्वरूप अनन्त हैं | इन सबको समझ पाना सम्भव नहीं है | इस श्लोक में प्रयुक्त विभूति शब्द उन ऐश्र्वर्यों का सूचक है, जिनके द्वारा भगवान् सारे विश्र्व का नियन्त्रण करते हैं | अमरकोश में विभूति का अर्थ विलक्षण ऐश्र्वर्य है |
निर्विशेषवादी या सर्वेश्र्वरवादी न तो भगवान् के विलक्षण ऐश्र्वर्यों को समझ पाता है, न उनकी दैवी शक्तियों के स्वरूपों को | भौतिक जगत् में तथा वैकुण्ठ लोक में उनकी शक्तियाँ अनेक रूपों में फैली हुई हैं | अब कृष्ण उन रूपों को बताने जा रहे हैं, जो सामान्य व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से देख सकता है | इस प्रकार उनकी रंगबिरंगी शक्ति का आंशिक वर्णन किया गया है |