HI/BG 10.25
श्लोक 25
- महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।
- यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥२५॥
शब्दार्थ
महा-ऋषीणाम्—महॢषयों में; भृगु:—भृगु; अहम्—मैं हूँ; गिराम्—वाणी में; अस्मि—हूँ; एकम् अक्षरम्—प्रणव; यज्ञानाम्—समस्त यज्ञों में; जप-यज्ञ:—कीर्तन, जप; अस्मि—हूँ; स्थावराणाम्—जड़ पदार्थों में; हिमालय:—हिमालय पर्वत।
अनुवाद
मैं महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा समस्त अचलों में हिमालय हूँ |
तात्पर्य
ब्रह्माण्ड के प्रथम ब्रह्मा ने विभिन्न योनियों के विस्तार के लिए कई पुत्र उत्पन्न किये | इनमें से भृगु सबसे शक्तिशाली मुनि थे | समस्त दिव्य ध्वनियों में ओंकार कृष्ण का रूप है | समस्त यज्ञों में हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे | हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – का जप कृष्ण का सर्वाधिक शुद्ध रूप है | कभी-कभी पशु यज्ञ की भी संस्तुति की जाती है, किन्तु हरे कृष्ण यज्ञ में हिंसा का प्रश्न ही नहीं उठता | यह सबसे सरल तथा शुद्धतम यज्ञ है | समस्त जगत में जो कुछ शुभ है, वह कृष्ण का रूप है | अतः संसार का सबसे बड़ा पर्वत हिमालय भी उन्हीं का स्वरूप है | पिछले श्लोक में मेरु का उल्लेख हुआ है, परन्तु मेरु तो कभी-कभी सचल होता है, लेकिन हिमालय कभी चल नहीं है | अतः हिमालय मेरु से बढ़कर है |