HI/BG 10.28
श्लोक 28
- आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् ।
- प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥२८॥
शब्दार्थ
आयुधानाम्—हथियारों में; अहम्—मैं हूँ; वज्रम्—वज्र; धेनूनाम्—गायों में; अस्मि—हूँ; काम-धुक्—सुरभि गाय; प्रजन:—सन्तान, उत्पत्ति का कारण; च—तथा; अस्मि—हूँ; कन्दर्प:—कामदेव; सर्पाणाम्—सर्पों में; अस्मि—हूँ; वासुकि:—वासुकि।
अनुवाद
मैं हथियारों में वज्र हूँ, गायों में सुरभि, सन्तति उत्पत्ति के कारणों में प्रेम के देवता कामदेव तथा सर्पों में वासुकि हूँ |
तात्पर्य
वज्र सचमुच अत्यन्त बलशाली हथियार है और यह कृष्ण की शक्ति का प्रतिक है | वैकुण्ठलोक में स्थित कृष्णलोक की गाएँ किसी भी समय दुही जा सकती हैं और उनसे जो जितना चाहे उतना दूध प्राप्त कर सकता है | निस्सन्देह इस जगत् में ऐसी गाएँ नहीं मिलती, किन्तु कृष्णलोक में इनके होने का उल्लेख है | भगवान् ऐसी अनेक गाएँ रखते हैं, जिन्हें सुरभि कहा जाता है | कहा जाता है कि भगवान् ऐसी गायों के चराने में व्यस्त रहते हैं | कंदर्प काम वासना है, जिससे अच्छे पुत्र उत्पन्न होते हैं | कभी-कभी केवल इन्द्रियतृप्ति के लिए संभोग किया जाता है, किन्तु ऐसा संभोग कृष्ण का प्रतिक नहीं है | अच्छी सन्तान की उत्पत्ति के लिए किया गया संभोग कंदर्प कहलाता है और वह कृष्ण का प्रतिनिधि होता है |