HI/BG 10.4-5
श्लोकस 4-5
- k
शब्दार्थ
बुद्धि:—बुद्धि; ज्ञानम्—ज्ञान; असम्मोह:—संशय से रहित; क्षमा—क्षमा; सत्यम्—सत्यता; दम:—इन्द्रियनिग्रह; शम:—मन का निग्रह; सुखम्—सुख; दु:खम्—दुख; भव:—जन्म; अभाव:—मृत्यु; भयम्—डर; च—भी; अभयम्—निर्भीकता; एव—भी; च—तथा; अङ्क्षहसा—अङ्क्षहसा; समता—समभाव; तुष्टि:—सन्तोष; तप:—तपस्या; दानम्—दान; यश:—यश; अयश:—अपयश, अपकीॢत; भवन्ति—होते हैं; भावा:—प्रकृतियाँ; भूतानाम्—जीवों की; मत्त:—मुझसे; एव—निश्चय ही; पृथक्-विधा:—भिन्न-भिन्न प्रकार से व्यवस्थित।
अनुवाद
बुद्धि, ज्ञान, संशय तथा मोह से मुक्ति, क्षमाभाव, सत्यता, इन्द्रियनिग्रह, मननिग्रह, सुख तथा दुख, जन्म, मृत्यु, भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश तथा अपयश – जीवों के ये विविध गुण मेरे ही द्वारा उत्पन्न हैं |
तात्पर्य
जीवों के अच्छे या बुरे गुण कृष्ण द्वारा उत्पन्न हैं और यहाँ पर उनका वर्णन किया गया है |
बुद्धि का अर्थ है नीर-क्षीर विवेक करने वाली शक्ति, और ज्ञान का अर्थ है, आत्मा तथा पदार्थ को जान लेना | विश्र्वविद्यालय की शिक्षा से प्राप्त सामान्य ज्ञान पदार्थ से सम्बन्धित होता है, यहाँ इसे ज्ञान नहीं स्वीकार किया गया है | ज्ञान का अर्थ है आत्मा तथा भौतिक पदार्थ के अन्तर को जानना | आधुनिक शिक्षा में आत्मा के विषय में कोई ज्ञान नहीं दिया जाता, केवल भौतिक तत्त्वों तथा शारीरिक आवश्यकताओं पर ध्यान दिया जाता है | फलस्वरूप शैक्षिक ज्ञान पूर्ण नहीं है |
असम्मोह अर्थात् संशय तथा मोह से मुक्ति तभी प्राप्त हो सकती है, जब मनुष्य झिझकता नहीं और दिव्य दर्शन को समझता है | वह धीरे-धीरे निश्चित रूप से मोह से मुक्त हो जाता है | हर बात को सतर्कतापूर्वक ग्रहण करना चाहिए, आँख मूँदकर कुछ भी स्वीकार नहीं करना चाहिए | क्षमा का अभ्यास करना चाहिए | मनुष्य को सहिष्णु होना चाहिए और दूसरों के छोटे-छोटे अपराध क्षमा कर देना चाहिए | सत्यम् का अर्थ है कि तथ्यों को सही रूप से अन्यों के लाभ के लिए प्रस्तुत किया जाए | तथ्यों को तोड़ना मरोड़ना नहीं चाहिए | सामाजिक प्रथा के अनुसार कहा जाता है कि वही सत्य बोलना चाहिए जो अन्यों को प्रिय लगे | किन्तु यह सत्य नहीं है | सत्य को सही-सही रूप में बोलना चाहिए, जिससे दूसरे लोग समझ सकें कि सच्चाई क्या है | यदि कोई मनुष्य चोर है और यदि लोगों को सावधान कर दिया जाय कि अमुक व्यक्ति चोर है, तो यह सत्य है | यद्यपि सत्य कभी-कभी अप्रिय होता है, किन्तु सत्य कहने में संकोच नहीं करना चाहिए | सत्य की माँग है कि तथ्यों को यथारूप में लोकहित के लिएप्रस्तुत किया जाय | यही सत्य की परिभाषा है |
दमः का अर्थ है कि इन्द्रियों को व्यर्थ के विषयभोग में न लगाया जाय | इन्द्रियों की समुचित आवश्यकताओं की पूर्ति का निषेध नहीं है, किन्तु अनावश्यक इन्द्रियभोग आध्यात्मिक उन्नति में बाधक है | फलतः इन्द्रियों के अनावश्यक उपयोग पर नियन्त्रण रखना चाहिए | इसी प्रकार मन पर भी अनावश्यक विचारों के विरुद्ध संयम रखना चाहिए | इसे शम कहते हैं | मनुष्य को चाहिए कि धन-अर्जन के चिन्तन में ही सारा समय न गँवाए | यह चिन्तन शक्ति का दुरूपयोग है | मन का उपयोग मनुष्यों की मूल आवश्यकताओं को समझने के लिए किया जाना चाहिए और उसे ही प्रमाणपूर्वक प्रस्तुत करना चाहिए | शास्त्रमर्मज्ञों, साधुपुरुषों, गुरुओं तथा महान विचारकों की संगति में रहकर विचार-शक्ति का विकास करना चाहिए | जिस प्रकार से कृष्णभावनामृत के अध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन में सुविधा ही वही सुखम् है | इसी प्रकार दुःखम् वह है जिससे कृष्णभावनामृत के अनुशीलन में असुविधा हो | जो कुछ कृष्णभावनामृत के विकास के अनुकूल हो, उसे स्वीकार करे और जो प्रतिकूल हो उसका परित्याग करे |
भव अर्थात् जन्म का सम्बन्ध शरीर से है | जहाँ तक आत्मा का प्रश्न है, वह न तो उत्पन्न होता है न मरता है | इसकी व्याख्या हम भगवद्गीता के प्रारम्भ में ही कर चुके हैं | जन्म तथा मृत्यु का संबंध इस भौतिक जगत् में शरीर धारण करने से है | भय तो भविष्य की चिन्ता से उद्भूत है | कृष्णभावनामृत में रहने वाला व्यक्ति कभी भयभीत नहीं होता, क्योंकि वह अपने कर्मों के द्वारा भगवद्धाम को वापस जाने के प्रति आश्र्वस्त रहता है | फलस्वरूप उसका भविष्य उज्जवल होता है | किन्तु अन्य लोग अपने भविष्य के विषय में कुछ नहीं जानते, उन्हें इसका कोई ज्ञान नहीं होता कि अगले जीवन में क्या होगा | फलस्वरूप वे निरन्तर चिन्ताग्रस्त रहते हैं | यदि हम चिन्तामुक्त होना चाहते हैं, तो सर्वोत्तम उपाय यह है कि हम कृष्ण को जाने तथा कृष्णभावनामृत में निरन्तर स्थित रहें | इस प्रकार हम समस्त भय से मुक्त रहेंगे | श्रीमद्भागवत में (११.२.३७) कहा गया है – भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यात् – भय तो हमारे मायापाश में फँस जाने से उत्पन्न होता है | किन्तु जो माया के जाल से मुक्त हैं, जो आश्र्वस्त हैं कि वे शरीर नहीं, अपितु भगवान् के अध्यात्मिक अंश हैं और जो भगवद्भक्ति में लगे हुए हैं, उन्हें कोई भय नहीं रहता | उनका भविष्य अत्यन्त उज्जवल है | यह भय तो उन व्यक्तियों की अवस्था है जो कृष्णभावनामृत में नहीं हैं | अभयम् तभी सम्भव है जब कृष्णभावनामृत में रहा जाए |
अहिंसा का अर्थ होता है की अन्यों को कष्ट न पहुँचाया जाय | जो भौतिक कार्य अनेकानेक राजनीतिज्ञों, समाजशास्त्रियों, परोपकारियों आदि द्वारा किये जाते हैं, उनके परिणाम अच्छे नहीं निकलते, क्योंकि राजनीतिज्ञों, सतथा परोपकारियों की दिव्यदृष्टि नहीं होती, वे यह नहीं जानते कि वास्तव में मानव समाज के लिए क्या लाभप्रद है | अहिंसा का अर्थ है कि मनुष्यों को इस प्रकार से प्रशिक्षित किया जाए कि इस मानवदेह का पूरा-पूरा उपयोग हो सके | मानवदेह आत्म-साक्षात्कार के हेतु मिली है | अतः ऐसी कोई संस्था या संघ जिससे उद्देश्य की पूर्ति में प्रोत्साहन न हो, मानवदेह केप्रति हिंसा करने वाला है | जिससे मनुष्यों के भावी आध्यात्मिक सुख में वृद्धि हो, वही अहिंसा है |
समता से राग-द्वेष से मुक्तो द्योतित होती है | न तो अत्यधिक राग अच्छा होता है और न अत्यधिक द्वेष ही | इस भौतिक जगत् को राग-द्वेष से रहित होकर स्वीकार करना चाहिए | जो कुछ कृष्णभावनामृत को सम्पन्न करने में अनुकूल हो, उसे ग्रहण करे और जो प्रतिकूल हो उसका त्याग कर दे | यही समता है | कृष्णभावनामृत युक्त व्यक्ति को न तो कुछ ग्रहण करना होता है, न त्याग करना होता है | उसे तो कृष्णभावनामृत सम्पन्न करने में उसकी उपयोगिता से प्रयोजन रहता है |
तुष्टि का अर्थ है कि मनुष्य को चाहिए कि अनावश्यक कार्य करके अधिकाधिक वस्तुएँ एकत्र करने के लिए उत्सुक न रहे | उसे तो ईश्र्वर की कृपा से जो प्राप्त हो जाए, उसी से प्रसन्न रहना चाहिए | यही तुष्टि है | तपस् का अर्थ है तपस्या | तपस् के अन्तर्गत वेदों में वर्णित अनेक विधि-विधानों का पालन करना होता है – यथा प्रातः-काल उठाना और स्नान करना | कभी-कभी प्रातःकाल उठान अति कष्टकारक होता है , किन्तु इस प्रकार स्वेच्छा से जो भी कष्ट सहे जाते हैं वे तपस् या तपस्या कहलाते हैं | इसी प्रकार मास के कुछ विशेष दिनों में उपवास रखने का विधान है | हो सकता है कि इन उपवासों को करने की इच्छा न हो, किन्तु कृष्णभावनामृत के विज्ञान में प्रगति करने के संकल्प के कारण उसे ऐसे शारीरिक कष्ट उठाने होतेहैं | किन्तु उसे व्यर्थ ही अथवा वैदिक आदेशों के प्रतिकूल उपवास करने की आवश्यकता नहीं है | उसे किसी राजनीतिक उद्देश्य से उपवास नहीं करना चाहिए | भगवद्गीता में इसे तामसी उपवास कहा गया है तथा किसी भी ऐसे कार्य से जो तमोगुण या रजोगुण में किया जाता है, आध्यात्मिक उन्नति नहीं होती | किन्तु सतोगुण में रहकर जो भी कार्य किया जाता है वह समुन्नत बनाने वाला है, अतः वैदिक आदेशों के अनुसार किया गया उपवास आध्यात्मिक ज्ञान को समुन्नत बनाता है |
जहाँ तक दान का सम्बन्ध है, मनुष्य को चाहिए कि अपनी आय का पचास प्रतिशत किसी शुभ कार्य में लगाए और यह शुभ कार्य है क्या? यह है कृष्णभावनामृत में किया गया कार्य | ऐसा कार्य शुभ ही नहीं, अपितु सर्वोत्तम होता है | चूँकि कृष्ण अच्छे हैं इसीलिए उनका कार्य (निमित्त) भी अच्छा है, अतः दान उसे दिया जाय जो कृष्णभावनामृत में लगा हो | वेदों के अनुसार ब्राह्मणों को दान दिया जाना चाहिए | यह प्रथा आज भी चालू है, यद्यपि इसका स्वरूप वह नहीं है जैसा कि वेदों का उपदेश है | फिर भी आदेश यही है कि दान ब्राहमणों को दिया जाय | वह क्यों? क्योंकि वे अध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन में लगे रहते हैं | ब्राह्मण से यह आशा की जाती है कि वह सारा जीवन ब्रह्मजिज्ञासा में लगा दे | ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः – जो ब्रह्म को जाने, वही ब्राह्मण है | इसीलिए दान ब्राह्मणों को दिया जाता है, क्योंकि वे सदैव आध्यात्मिक कार्य में रत रहते हैं और उन्हें जीविकोपार्जन के लिए समय नहीं मिल पाता | वैदिक साहित्य में संन्यासियों को भी दान दिये जाने का आदेश है | संन्यासी द्वार-द्वार जाकर भिक्षा माँगते हैं | वे धनार्जन के लिए नहीं, अपितु प्रचारार्थ ऐसा करते हैं | वे द्वार-द्वार जाकर भिक्षा माँगते हैं | वे धनार्जन के लिए नहीं, अपितु प्रचारार्थ ऐसा करते हैं | वे द्वार-द्वार जाकर गृहस्थों को अज्ञान की निद्रा से जगाते हैं | चूँकि गृहस्थ गृहकार्यों में व्यस्त रहने के कारण अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को, कृष्णभावनामृत जगाने को, भूले रहते हैं, अतः यह संन्यासियों का कर्तव्य है कि वे भिखारी बन कर गृहस्थों के पास जाएँ और कृष्णभावनामृत होने के लिए उन्हें प्रेरित करें | वेदों का कथन है कि मनुष्य जागे और मानव जीवन में जो प्राप्त करना है, उसे प्राप्त करे | संन्यासियों द्वारा यह ज्ञान तथा विधि वितरित की जाती है, अतः संन्यासी को ब्राह्मणों को तथा इसी प्रकार के उत्तम कार्यों के लिए दान देना चाहिए, किसी सनक के कारण नहीं|
यशस् भगवान् चैतन्य के अनुसार होना चाहिए | उनका कथन है कि मनुष्य तभी प्रसिद्धि (यश) प्राप्त करता है, जब वह महान भक्त के रूप में जाना जाता हो | यही वास्तविक यश है | यदि कोई कृष्णभावनामृत में महान बनता है और विख्यात होता है, तो वही वास्तव में प्रसिद्ध है | जिसे ऐसा यश प्राप्त न हो, वह अप्रसिद्ध है |
ये सारे गुण संसार भर में मानव समाज में तथा देवसमाज में प्रकट होते हैं | अन्य लोकों में भी विभिन्न तरह के मानव हैं और ये गुण उनमें भी होते हैं | तो, जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में प्रगति करना चाहता है, उसमें कृष्ण ये सारे गुण उत्पन्न कर देते हैं, किन्तु मनुष्य को तो इन्हें अपने अन्तर में विकसित करना होता है | जो व्यक्ति भगवान् की सेवा में लग जाता है, वह भगवान् की योजना के अनुसार इन सारे गुणों को विकसित कर लेता है |
हम जो कुछ भी अच्छा या बुरा देखते हैं उसका मूल श्रीकृष्ण हैं | इस संसार में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं, जो कृष्ण में स्थित न हो | यही ज्ञान है | यद्यपि हम जानते हैं कि वस्तुएँ भिन्न रूप में स्थित हैं, किन्तु हमें यह अनुभव करना चाहिए कि सारी वस्तुएँ कृष्ण से ही उत्पन्न हैं |