HI/BG 10.41

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 41

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥४१॥

शब्दार्थ

यत् यत्—जो-जो; विभूति—ऐश्वर्य; मत्—युक्त; सत्त्वम्—अस्तित्व; श्री-मत्—सुन्दर; ऊॢजतम्—तेजस्वी; एव—निश्चय ही; वा—अथवा; तत् तत्—वे-वे; एव—निश्चय ही; अवगच्छ—जानो; त्वम्—तुम; मम—मेरे; तेज:—तेज का; अंश—भाग, अंश से; सम्भवम्—उत्पन्न।

अनुवाद

तुम जान लो कि सारा ऐश्र्वर्य, सौन्दर्य तथा तेजस्वी सृष्टियाँ मेरे तेज के एक स्फुलिंग मात्र से उद्भूत हैं |

तात्पर्य

किसी भी तेजस्वी या सुन्दर सृष्टि को, चाहे वह अध्यात्म जगत में हो या इस जगत में, कृष्ण की विभूति का अंश रूप ही मानना चाहिए | किसी भी अलौकिक तेजयुक्त वस्तु को कृष्ण की विभूति समझना चाहिए |