HI/BG 11.20
श्लोक 20
- द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि
- व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः ।
- दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं
- लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ॥२०॥
शब्दार्थ
द्यौ—बाह्य आकाश से लेकर; आ-पृथिव्यो:—पृथ्वी तक; इदम्—इस; अन्तरम्—मध्य में; हि—निश्चय ही; व्याह्रश्वतम्—व्याह्रश्वत; त्वया—आपके द्वारा; एकेन—अकेला; दिश:—दिशाएँ; च—तथा; सर्वा:—सभी; ²ष्ट्वा—देखकर; अद्भुतम्—अद्भुत; रूपम्—रूप को; उग्रम्—भयानक; तव—आपके; इदम्—इस; लोक—लोक; त्रयम्—तीन; प्रव्यथितम्—भयभीत, विचलित; महा-आत्मन्—हे महापुरुष।
अनुवाद
यद्यपि आप एक हैं, किन्तु आप आकाश तथा सारे लोकों एवं उनके बीच के समस्त अवकाश में व्याप्त हैं | हे महापुरुष! आपके इस अद्भुत तथा भयानक रूप को देखके सारे लोक भयभीत हैं |
तात्पर्य
इस श्लोक में द्याव्-आ-पृथिव्योः (धरती तथा आकाश के बीच का स्थान) तथा लोकत्रयम् (तीनों संसार) महत्त्वपूर्ण शब्द हैं, क्योंकि ऐसा लगता है कि न केवल अर्जुन ने इस विश्र्वरूप को देखा, बल्कि अन्य लोकों के वासियों ने भी देखा | अर्जुन द्वारा विश्र्वरूप का दर्शन स्वप्न न था | भगवान् ने जिन जिनको दिव्य दृष्टि प्रदान की, उन्होंने युद्धक्षेत्र में उस विश्र्वरूप को देखा |