HI/BG 11.25
श्लोक 25
- दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि
- दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि ।
- दिशो न जाने न लभे च शर्म
- प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥२५॥
शब्दार्थ
दंष्ट्रा—दाँत; करालानि—विकराल; च—भी; ते—आपके; मुखानि—मुखों को; दृष्ट्वा—देखकर; एव—इस प्रकार; काल-अनल—प्रलय की; सन्निभानि—मानो; दिश:—दिशाएँ; न—नहीं; जाने—जानता हूँ; न—नहीं; लभे—प्राह्रश्वत करता हूँ; च—तथा; शर्म—आनन्द; प्रसीद—प्रसन्न हों; देव-ईश—हे देवताओं के स्वामी; जगत्निवास—हे समस्त जगतों के आश्रय।
अनुवाद
हे देवेश! हे जगन्निवास! आप मुझ पर प्रसन्नहों ! मैं इस प्रकार से आपके प्रल्याग्नि स्वरूप मुखों को तथा विकराल दाँतों कोदेखकर अपना सन्तुलन नहीं रख पा रहा | मैं सब ओर से मोहग्रस्त हो रहा हूँ |