HI/BG 11.31
श्लोक 31
- आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो
- नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ।
- विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं
- न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥३१॥
शब्दार्थ
आख्याहि—कृपया बताएँ; मे—मुझको; क:—कौन; भवान्—आप; उग्र-रूप:—भयानक रूप; नम: अस्तु—नमस्कार हो; ते—आपको; देव-वर—हे देवताओं में श्रेष्ठ; प्रसीद—प्रसन्न हों; विज्ञातुम्—जानने के लिए; इच्छामि—इच्छुक हूँ; भवन्तम्—आपको; आद्यम्—आदि; न—नहीं; हि—निश्चय ही; प्रजानामि—जानता हूँ; तव—आपका; प्रवृत्तिम्—प्रयोजन।
अनुवाद
हे देवेश!कृपा करकेमुझे बतलाइये कि इतने उग्ररूप में आप कौन हैं? मैं आपको नमस्कार करता हूँ, कृपा करके मुझ पर प्रसन्न हों | आप आदि-भगवान् हैं | मैं आपको जानना चाहताहूँ, क्योंकि मैं नहीं जान पा रहा हूँ कि आपका प्रयोजन क्या है |