HI/BG 11.34

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 34

द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च
कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥३४॥

शब्दार्थ

द्रोणम् च—तथा द्रोण; भीष्मम् च—भीष्म भी; जयद्रथम् च—तथा जयद्रथ; कर्णम्—कर्ण; तथा—और; अन्यान्—अन्य; अपि—निश्चय ही; योध-वीरान्—महान योद्धा; मया—मेरे द्वारा; हतान्—पहले ही मारे गये; त्वम्—तुम; जहि—मारो; मा—मत; व्यथिष्ठा:—विचलित होओ; युध्यस्व—लड़ो; जेता असि—जीतोगे; रणे—युद्ध में; सपत्नान्—शत्रुओं को।

अनुवाद

द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण तथा अन्य महान योद्धा पहले ही मेरे द्वारामारेजा चुके हैं | अतः उनका वध करो और तनिक भी विचलित न होओ | तुम केवल युद्धकरो| युद्ध में तुम अपने शत्रुओं को परास्त करोगे |

तात्पर्य

प्रत्येक योजना भगवान् द्वारा बनती है, किन्तु वे अपनेभक्तों परइतने कृपालु रहते हैं कि जो भक्त उनकी इच्छानुसार उनकी योजना का पालनकरतेहैं, उन्हें ही वे उसका श्रेय देते हैं | अतः जीवन को इस प्रकार गतिशीलहोनाचाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति कृष्णभावनामृत में कर्म करे और गुरु केमाध्यम सेभगवान् को जाने | भगवान् की योजनाएँ उन्हीं की कृपा से समझी जातीहैं और भक्तों कीयोजनाएँ उनकी ही योजनाएँ हैं | मनुष्य को चाहिए कि ऐसीयोजनाओं का अनुसरण करे औरजीवन-संघर्ष में विजयी बने |