HI/BG 11.45

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 45

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा
भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।
तदेव मे दर्शय देव रूपं
प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥४५॥

शब्दार्थ

अ²ष्ट-पूर्वम्—पहले कभी न देखा गया; हृषित:—हॢषत; अस्मि—हूँ; ²ष्ट्वा—देखकर; भयेन—भय के कारण; च—भी; प्रव्यथितम्—विचलित, भयभीत; मन:—मन; मे—मेरा; तत्—वह; एव—निश्चय ही; मे—मुझको; दर्शय—दिखलाइये; देव—हे प्रभु; रूपम्—रूप; प्रसीद—प्रसन्न होइये; देव-ईश—ईशों के ईश; जगत्-निवास—हे जगत के आश्रय।

अनुवाद

पहले कभी नदेखे गये आपके विराट रूप का दर्शन करके मैं पुलकित हो रहा हूँ, किन्तु साथही मेरा मन भयभीत हो रहा है । अतः आप मुझ पर कृपा करें और हे देवेश, हेजगन्निवास! अपना पुरुषोत्तम भगवत् स्वरूप पुनः दिखाएँ ।

तात्पर्य

अर्जुन को कृष्ण परविश्र्वास है, क्योंकि वह उनका प्रिय मित्रहै और मित्र रूप में वह अपने मित्र के ऐश्र्वर्य को देखकर अत्यन्त पुलकितहै । अर्जुन यह देख कर अत्यन्त प्रसन्न है कि उसके मित्र कृष्ण भगवान् हैंऔर वे ऐसा विराट रूप प्रदर्शित कर सकते हैं । किन्तु साथ ही वह यह विराटरूप को देखकर भयभीत है कि उसने अनन्य मैत्रीभाव के कारण कृष्ण के प्रतिअनेक अपराध किये हैं । इस प्रकार भयवश उसका मन विचलित है, यद्यपि भयभीतहोने का कोई कारण नहीं है । अतएव अर्जुन कृष्ण से प्रार्थना करता है कि वेअपने नारायण रूप दिखाएँ, क्योंकि वे कोई भी रूप धारण कर सकते हैं । यहविराट रूप भौतिक जगत के ही तुल्य भौतिक एवं नश्र्वर है । किन्तु वैकुण्ठलोकमें नारायण के रूप में उनका शाश्र्वत चतुर्भुज रूप रहता है । वैकुण्ठलोकमें असंख्य लोक है और कृष्ण इन सबमें अपने भिन्न नामों से अंश रूप मेंविद्यमान हैं । इस प्रकार अर्जुन वैकुण्ठलोक के उनके किसी एक रूप को देखनाचाहता था । निस्सन्देह प्रत्येकवैकुण्ठलोक में नारायण का स्वरूप चतुर्भुजी है, किन्तु इन चारों हाथों में वे विभिन्न क्रम में शंख, गदा, कमल तथा चक्रचिन्ह धारण किये रहते हैं । विभिन्न हाथों में इन चारों चिन्हों के अनुसारनारायण भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाते हैं । ये सारे रूप कृष्ण के हीहैं, इसलिए अर्जुन कृष्ण के चतुर्भुज रूप का दर्शन करना चाहता था ।