HI/BG 11.54
श्लोक 54
- भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
- ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥५४॥
शब्दार्थ
भक्त्या—भक्ति से; तु—लेकिन; अनन्यया—सकामकर्म तथा ज्ञान से रहित; शक्य:—सम्भव; अहम्—मैं; एवम्-विध:—इस प्रकार; अर्जुन—हे अर्जुन; ज्ञातुम्—जानने; द्रष्टुम्—देखने; च—तथा; तत्त्वेन—वास्तव में; प्रवेष्टुम्—प्रवेश करने; च—भी; परन्तप—हे बलिष्ठ भुजाओं वाले।
अनुवाद
हे अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, जिसरूप में मैं तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ और इसी प्रकार मेरा साक्षात् दर्शन भीकिया जा सकता है | केवल इसी विधि से तुम मेरे ज्ञान के रहस्य को पा सकतेहो |
तात्पर्य
कृष्ण को केवल अनन्य भक्तियोग द्वारा समझाजा सकता है | इस श्लोक में वे इसे स्पष्टतया कहते हैं, जिससे ऐसे अनाधिकारीटीकाकार जो भगवद्गीता को केवल कल्पना के द्वारा समझाना चाहते हैं, यह जानसकें कि वे समय का अपव्यय कर रहे हैं | कोई यह नहीं जान सकता कि वे किसप्रकार चतुर्भुज रूप में माता के गर्भ से उत्पन्न हुए और फिर तुरन्त ही दोभुजाओं वाले रूप में बदल गये | ये बातें न तो वेदों के अध्ययन से समझी जासकती है, न दार्शनिक चिंतन द्वारा | अतः यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि न तोकोई उन्हें देख सकता है और न इन बातों का रहस्य ही समझ सकता है | किन्तु जोलोग वैदिक साहित्य के अनुभवी विद्यार्थी हैं वे अनेक प्रकार से वैदिकग्रंथों के माध्यम से उन्हें जान सकते हैं | इसके लिए अनेक विधि-विधान हैंऔर यदि कोई सचमुच उन्हें जानना चाहता है तो उसे प्रमाणिक ग्रंथों मेंउल्लिखित विधियों का पालन करना चाहिए | वह इन नियमों के अनुसार तपस्या करसकता है | उदाहरणार्थ, कठिन तपस्या के हेतु वह कृष्णजन्माष्टमी को, जोकृष्ण का आविर्भाव दिवस है, तथा मॉस की दोनों एकादशियों को उपवास कर सकताहै | जहाँ तक दान का सम्बन्ध है, यह बात साफ़ है कि उन कृष्ण भक्तों को यहदान दिया जाय जो संसार भर में कृष्ण-दर्शन को या कृष्णभावनामृत को फैलानेमें लगे हुए हैं | कृष्णभावनामृत मानवता के लिए वरदान है | रूप गोस्वामी नेभगवान् चैतन्य की प्रशंसा परम दानवीर के रूप में की है, क्योंकि उन्होंनेकृष्ण प्रेम का मुक्तरीति से विस्तार किया, जिसे प्राप्त कर पाना बहुत कठिनहै | अतः यदि कोई कृष्णभावनामृत का प्रचार करने वाले व्यक्तियों को अपनाधन दान में देता है, तो कृष्णभावनामृत का प्रचार करने के लिए दिया गया यहदान संसार का सबसे बड़ा दान है | और यदि कोई मंदिर में जाकर विधिपूर्वक पूजाकरता है (भारत के मन्दिरों में सदा कोई न कोई मूर्ति, सामान्यतया विष्णुया कृष्ण की मूर्ति रहती है) तो यह भगवान् की पूजा करके तथा उन्हें सम्मानप्रदान करके उन्नति करने का अवसर होता है | नौसिखियों के लिए भगवान् कीभक्ति करते हुए मंदिर-पूजा अनिवार्य है, जिसकी पुष्टि श्र्वेताश्र्वतरउपनिषद् में (६.२३) हुई है –
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ |
तस्यैते कथिता ह्यार्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ||
जिसमें भगवान् के लिए अविचल भक्तिभाव होता है और जिसका मार्गदर्शन गुरुकरता है, जिसमें भी उसकी वैसी ही अविचल श्रद्धा होती है, वह भगवान् कादर्शन प्रकट रूप में कर सकता है | मानसिक चिन्तन (मनोधर्म) द्वारा कृष्ण कोनहीं समझा जा सकता | जो व्यक्ति प्रामाणिक गुरु से मार्गदर्शन प्राप्त नहींकरता, उसके लिए कृष्ण को समझने का शुभारम्भ कर पाना भीकठिन है | यहाँ पर तुशब्द का प्रयोग विशेष रूप से यह सूचित करने के लिए हुआ है कि अन्य विधि नतो बताई जा सकती है, न प्रयुक्त की जा सकती है, न ही कृष्ण को समझने मेंसफल हो सकती है |
कृष्ण को चतुर्भुज तथा द्विभुज साक्षात् रूपअर्जुन को दिखाए गये क्षणिक विश्र्वरूप से सर्वथा भिन्न हैं | नारायण काचतुर्भुज रूप तथा कृष्ण का द्विभुज रूप दोनों ही शाश्र्वत तथा दिव्य हैं, जबकि अर्जुन को दिखलाया गया विश्र्वरूप नश्र्वर है | सुदुर्दर्शम् शब्द काअर्थ ही है "देख पाने में कठिन", जिससे पता चलता है कि इस विश्र्वरूप कोकिसी ने नहीं देखा था | इससे यह भी पता चलता है कि भक्तों को इस रूप कोदिखाने की आवश्यकता भी नहीं थी | इस रूप को कृष्ण ने अर्जुन कीप्रार्थनापरदिखाया था, जिससे भविष्य में यदि कोई अपने को भगवान् का अवतार कहे तो लोगउससे कह सकें कि तुम अपना विश्र्वरूप दिखलाओ |
पिछले श्लोक में नशब्द की पुनरुक्ति सूचित करती है कि मनुष्य को वैदिक ग्रंथों के पाण्डित्यका गर्व नहीं होना चाहिए | उसे कृष्ण की भक्ति करनी चाहिए | तभी वहभगवद्गीता की टीका लिखने का प्रयास कर सकता है |
कृष्णविश्र्वरूप से नारायण के चतुर्भुज रूप में और फिर अपने सहज द्विभुज रूप मेंपरिणत होते हैं | इससे यह सूचित होता है कि वैदिक साहित्य में उल्लेखितचतुर्भुज रूप तथा अन्य रूप कृष्ण के आदि द्विभुज रूप ही से उद्भूत हैं | वेसमस्त उद्भवों के उद्गम हैं | कृष्ण इनसे भी भिन्न हैं, निर्विशेष रूप कीकल्पना का तो कुछ कहना ही नहीं | जहाँ तक कृष्ण के चतुर्भुजी रूपों कासम्बन्ध है, यह स्पष्ट कहा गया है कि कृष्ण का सर्वाधिक निकट चतुर्भुजी रूप (जो महाविष्णु के नाम से विख्यात हैं और जो कारणार्णव में शयन करते हैंतथा जिनके श्र्वास तथा प्रश्र्वास में अनेक ब्रह्माण्ड निकलते एवं प्रवेशकरते रहते हैं) भी भगवान् का अंश है | जैसा कि ब्रह्मसंहिता में (५.४८) कहागया है –
यस्यैकनिश्र्वसितकालमथावलम्ब्य
जीवन्ति लोमविलजा जगदण्डनाथाः |
विष्णुर्महान् स इह यस्य कलाविशेषो
गोविन्दमादि पुरुषं तमहं भजामि ||
"जिनके श्र्वास लेने से ही जिनमें अनन्त ब्रह्माण्ड प्रवेश करते हैं तथापुनः बाहर निकल आते हैं, वे महाविष्णु कृष्ण के अंश रूप हैं | अतः मैंगोविन्द या कृष्ण की पूजा करता हूँ जो समस्त कारणों के कारण हैं |" अतःमनुष्य को चाहिए कि कृष्ण के साकार रूप को भगवान् मानकर पूजे, क्योंकि वहीसच्चिदानन्द स्वरूप है | वे विष्णु के समस्त रूपों के उद्गम हैं, वे समस्तअवतारों के उद्गम हैं और आदि महापुरुष हैं, जैसा कि भगवद्गीता से पुष्टहोता है |
गोपाल-तपनी उपनिषद् में (१.१) निम्नलिखित कथन आया है
सच्चिदानन्दरूपाय कृष्णायाक्लिष्टकारिणे | नमो वेदान्तवेद्याय गुरवे बुद्धिसाक्षिणे ||
"मैं कृष्ण को प्रणाम करता हूँ को सच्चिदानन्द स्वरूप हैं | मैं उनकोनमस्कार करता हूँ, क्योंकि उनको जान लेने का अर्थ है, वेदों को जान लेना | अतः वे परम गुरु हैं |" उसी प्रकरण में कहा गया है – कृष्णो वै परमंदैवतम् – कृष्ण भगवान् हैं (गोपाल तापनी उपनिषद् १.३) | एको वशी सर्वगःकृष्ण ईड्यः – वह कृष्ण भगवान् हैं और पूज्य हैं | एकोऽपि सन्बहुधायोऽवभाति – कृष्ण एक हैं, किन्तु वे अनन्त रूपों तथा अंश अवतारों के रूपमें प्रकट होते हैं (गोपाल तापनी १.२१) | ब्रह्मसंहिता (५.१) का कथन है-
ईश्र्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः |
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम् ||
"भगवान् तो कृष्ण हैं, जो सच्चिदानन्द स्वरूप हैं | उनका कोई आदि नहीं है, क्योंकि वे प्रत्येक वस्तु के आदि हैं | वे समस्त कारणों के कारण हैं |"
अन्यत्र भी कहा गया है – यात्रावतिर्णं कृष्णाख्यं परं ब्रह्म नराकृति -भगवान् एक व्यक्ति है, उसका नाम कृष्ण है और वह कभी-कभी इस पृथ्वी परअवतरित होता है | इसी प्रकार श्रीमद्भागवत में भगवान् के सभी प्रकार केअवतारों का वर्णन मिलता है, जिसमें कृष्ण का भी नाम है | किन्तु यह कहा गयाहै कि यह कृष्ण ईश्र्वर के अवतार नहीं हैं, अपितु साक्षात् भगवान् हैं (एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्) |
इसी प्रकारभगवद्गीता में भगवान् कहते हैं – मत्तः परतरं नान्यत – मुझ भगवान् कृष्ण केरूप से कोई श्रेष्ठ नहीं है | अन्यत्र भी कहा गया है – अहम् आदिर्हीदेवानाम् – मैं समस्त देवताओं का उद्गम हूँ | कृष्ण से भगवद्गीता ज्ञानप्राप्त करने पर अर्जुन भी इन शब्दों में इसकी पुष्टि करता है – परं ब्रह्मपरं धाम पवित्रं परमं भवान्| अब मैं भलीभाँति समझ गया कि आप परम सत्यभगवान् हैं और प्रत्येक वस्तु के आश्रय हैं | अतः कृष्ण ने अर्जुन को जोविश्र्वरूप दिखलाया वह उनका आदि रूप नहीं है |आदि रूप तो कृष्ण है | हजारोंहाथों तथा हजारों सिरों वाला विश्र्वरूप तो उन लोगों का ध्यान आकृष्ट करनेके लिए दिखलाया गया, जिनका ईश्र्वर से तनिक भी प्रेम नहीं है | यह ईश्र्वरका आदि रूप नहीं है |
विश्र्वरूप उन शुद्धभक्तों के लिए तनिकभी आकर्षक नहीं होता, जो विभिन्न दिव्य सम्बन्धों में भगवान् से प्रेमकरते हैं | भगवान् अपने आदि कृष्ण रूप में ही प्रेम का आदान-प्रदान करतेहैं | अतः कृष्ण से घनिष्ठ मैत्री भाव से सम्बन्धित अर्जुन को यहविश्र्वरूप तनिक भी रुचिकर नहीं लगा, अपितु उसे भयानक लगा | कृष्ण के चिरसखा अर्जुन के पास अवश्य ही दिव्य दृष्टि रही होगी, वह भी सामान्य व्यक्ति नथा | इसीलिए वह विश्र्वरूप से मोहित नहीं हुआ | यह रूप उन लोगों को भले हीअलौकिक लगे, जो अपने को सकाम कर्मों द्वारा ऊपर उठाना चाहते हैं, किन्तुभक्ति में रत व्यक्तियों के लिए तो दोभुजा वाले कृष्ण का रूप ही अत्यन्तप्रिय है |