HI/BG 13.20

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 20

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥२०॥

शब्दार्थ

प्रकृतिम्—भौतिक प्रकृति को; पुरुषम्—जीव को; च—भी; एव—निश्चय ही; विद्धि—जानो; अनादी—आदिरहित; उभौ—दोनों; अपि—भी; विकारान्—विकारों को; च—भी; गुणान्—प्रकृति के तीन गुण; च—भी; एव—निश्चय ही; विद्धि—जानो; प्रकृति—भौतिक प्रकृति से; सम्भवान्—उत्पन्न।

अनुवाद

प्रकृति तथा जीवों को अनादि समझना चाहिए | उनके विकार तथा गुण प्रकृतिजन्य हैं |

तात्पर्य

इस अध्याय के ज्ञान से मनुष्य शरीर (क्षेत्र) तथा शरीर के ज्ञाता (जीवात्मा तथा परमात्मा दोनों) को जान सकता है | शरीर क्रियाक्षेत्र है और प्रकृति से निर्मित है | शरीर के भीतर बद्ध तथा उसके कार्यों का भोग करने वाला आत्मा ही पुरुष या जीव है | वह ज्ञाता है और इसके अतिरिक्त भी दूसरा ज्ञाता होता है, जो परमात्मा है | निस्सन्देह यह समझना चाहिए कि परमात्मा तथा आत्मा एक ही भगवान् की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं | जीवात्मा उनकी शक्ति है और परमात्मा उनका साक्षात् अंश (स्वांश) है |

प्रकृति तथा जीव दोनों ही नित्य हैं | तात्पर्य यह है कि वे सृष्टि के पहले से विद्यमान हैं | यह भौतिक अभिव्यक्ति परमेश्र्वर की शक्ति से है, और उसी प्रकार जीव भी हैं, किन्तु जीव श्रेष्ठ शक्ति है | जीव तथा प्रकृति इस ब्रह्माण्ड के उत्पन्न होने से पूर्व से विद्यमान हैं | प्रकृति तो महाविष्णु में लीन हो गई और जब इसकी आवश्यकता पड़ी तो यह महत्-तत्त्व के द्वारा प्रकट हुई | इसी प्रकार जीव भी उनके भीतर रहते हैं, और चूँकि वे बद्ध हैं, अतएव वे परमेश्र्वर की सेवा करने से विमुख हैं | इस तरह उन्हें वैकुण्ठ-लोक में प्रविष्ट होने नहीं दिया जाता | लेकिन प्रकृति के व्यक्त होने पर इन्हें भौतिक जगत् में पुनः कर्म करने और वैकुण्ठ-लोक में प्रवेश करने की तैयारी करने का अवसर दिया जाता है | इस भौतिक सृष्टि का यही रहस्य है | वास्तव में जीवात्मा मूलतः परमेश्र्वर का अंश है, लेकिन अपने विद्रोही स्वभाव के कारण वह प्रकृति के भीतर बद्ध रहता है | इसका कोई महत्त्व नहीं है कि ये जीव या श्रेष्ठ जीव किस प्रकार प्रकृति के सम्पर्क में आये | किन्तु भगवान् जानते हैं कि ऐसा कैसे और क्यों हुआ | शास्त्रों में भगवान् का वचन है कि जो लोग प्रकृति द्वारा आकृष्ट हैं, वे कठिन जीवन-संघर्ष कर रहे हैं | लेकिन इस कुछ श्लोकों के वर्णनों से यह निश्चित समझ लेना होगा कि प्रकृति के तीन गुणों के द्वारा उत्पन्न विकार प्रकृति की ही उपज हैं | जीवों के सारे विकार तथा प्रकार शरीर के कारण हैं | जहाँ तक आत्मा का सम्बन्ध है, सारे जीव एक ही हैं |