HI/BG 15.11

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 11

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥११॥

शब्दार्थ

यतन्त:—प्रयास करते हुए; योगिन:—अध्यात्मवादी, योगी; च—भी; एनम्—इसे; पश्यन्ति—देख सकते हैं; आत्मनि—अपने में; अवस्थितम्—स्थित; यतन्त:—प्रयास करते हुए; अपि—यद्यपि; अकृत-आत्मान:—आत्म-साक्षात्कार से विहीन; न—नहीं; एनम्—इसे; पश्यन्ति—देखते हैं; अचेतस:—अविकसित मनों वाले, अज्ञानी।

अनुवाद

आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त प्रयत्नशील योगीजन यह स्पष्ट रूप से देख सकते हैं । लेकिन जिनके मन विकसित नहीं हैं और जो आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त नहीं हैं, वे प्रयत्न करके भी यह नहीं देख पाते कि क्या हो रहा है ।

तात्पर्य

अनेक योगी आत्म-साक्षात्कार के पथ पर होते हैं, लेकिन जो आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त नहीं है, वह यह नहीं देख पाता कि जीव के शरीर में कैसे-कैसे परिवर्तन हो रहा है । इस प्रसंग में योगिनः शब्द महत्त्वपूर्ण है । आजकल ऐसे अनेक तथाकथित योगी हैं और योगियों के तथाकथित संगठन हैं, लेकिन आत्म-साक्षात्कार के मामले में वे शून्य हैं । वे केवल कुछ आसनों में व्यस्त रहते हैं और यदि उनका शरीर सुगठित तथा स्वस्थ हो गया,तो वे सन्तुष्ट हो जाते हैं | उन्हें इसके अतिरिक्त कोई जानकारी नहीं रहती । वे यतन्तोऽप्यकृतात्मानः कहलाते हैं | यद्यपि वे तथाकथित योगपद्धति का प्रयास करते हैं, लेकिन वे स्वरूपसिद्ध नहीं हो पाते | ऐसे व्यक्ति आत्मा के देहान्तरण को नहीं समझ सकते | केवल वे ही ये सभी बातें समझ पाते हैं, जो सचमुच योग पद्धति में रमते हैं और जिन्हें आत्मा, जगत् तथा परमेश्र्वर की अनुभूति हो चुकी है | दूसरे शब्दों में, जो भक्तियोगी हैं वे ही समझ सकते हैं कि किस प्रकार से सब कुछ घटित होता है |