HI/BG 16.11-12
श्लोक 11-12
- चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः ।
- कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ॥११॥
- आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः ।
- ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् ॥१२॥
शब्दार्थ
चिन्ताम्—भय तथा चिन्ताओं का; अपरिमेयाम्—अपार; च—तथा; प्रलय-अन्ताम्—मरणकाल तक; उपाश्रिता:—शरणागत; काम-उपभोग—इन्द्रियतृह्रिश्वत; परमा:—जीवन का परम लक्ष्य; एतावत्—इतना; इति—इस प्रकार; निश्चिता:—निश्चित करके; आशापाश—आशा रूप बन्धन; शतै:—सैकड़ों के द्वारा; बद्धा:—बँधे हुए; काम—काम; क्रोध—तथा क्रोध में; परायणा:—सदैव स्थित; ईहन्ते—इच्छा करते हैं; काम—काम; भोग—इन्द्रियभोग; अर्थम्—के निमित्त; अन्यायेन—अवैध रूप से; अर्थ—धन का; सञ्चयान्—संग्रह।
अनुवाद
उनका विश्र्वास है कि इन्द्रियों की तुष्टि ही मानव सभ्यता की मूल आवश्यकता है | इस प्रकार मरणकाल तक उनको अपार चिन्ता होती रहती है | वे लाखों इच्छाओं के जाल में बँधकर तथा काम और क्रोध में लीन होकर इन्द्रियतृप्ति के लिए अवैध ढंग से धनसंग्रह करते हैं |
तात्पर्य
आसुरी लोग मानते हैं कि इन्द्रियों का भोग ही जीवन का चरमलक्ष्य है और वे आमरण इसी विचारधारा को धारण किये रहते हैं | वे मृत्यु के बाद जीवन में विश्र्वास नहीं करते | वे यह नहीं मानते कि मनुष्य को इस जगत् में अपने कर्म के अनुसार विविध प्रकार के शरीर धारण करने पड़ते हैं | जीवन के लिए उनकी योजनाओं का अन्त नहीं होता और वे एक के बाद एक योजना बनाते रहते हैं जो कभी समाप्त नहीं होती | हमें ऐसे व्यक्ति की ऐसी आसुरी मनोवृत्ति का निजी अनुभव है, जो मरणाकाल तक अपने वैद्य से अनुनय-विनय करता रहा कि वह किसी तरह उसके जीवन की अवधि चार वर्ष बढ़ा दे, क्योंकि उसकी योजनाएँ तब भी अधूरी थीं | ऐसे मुर्ख लोग यह नहीं जानते कि वैद्य क्षणभर भी जीवन को नहीं बढ़ा सकता | जब मृत्यु का बुलावा आ जाता है, तो मनुष्य की इच्छा पर ध्यान नहीं दिया जाता | प्रकृति के नियम किसी को निश्चित अवधि के आगे क्षणभर भी भोग करने की अनुमति प्रदान नहीं करते |
आसुरी मनुष्य, जो ईश्र्वर या अपने अन्तर में स्थित परमात्मा में श्रद्धा नहीं रखता, केवल इन्द्रियतृप्ति के लिए सभी प्रकार के पापकर्म करता रहता है | वह नहीं जानता कि उसके हृदय के भीतर एक साक्षी बैठा है | परमात्मा प्रत्येक जीवात्मा के कार्यों को देखता रहता है | जैसा कि उपनिषदों में कहा गया है कि एक वृक्ष में दो पक्षी बैठे हैं, एक पक्षी कर्म करता हुआ टहनियों में लगे सुख-दुख रूपी फलों को भोग रहा है और दूसरा उसका साक्षी है | लेकिन आसुरी मनुष्य को न तो वैदिकशास्त्र का ज्ञान है, न कोई श्रद्धा है | अतएव वह इन्द्रियभोग के लिए कुछ भी करने के लिए अपने को स्वतन्त्र मानता है, उसे परिणाम की परवाह नहीं रहती |