HI/BG 16.4

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 4

दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च ।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ॥४॥

शब्दार्थ

दम्भ:—अहंकार; दर्प:—घमण्ड; अभिमान:—गर्व; च—भी; क्रोध:—क्रोध, गुस्सा; पारुष्यम्—निष्ठुरता; एव—निश्चय ही; च—तथा; अज्ञानम्—अज्ञान; च—तथा; अभिजातस्य—उत्पन्न हुए के; पार्थ—हे पृथापुत्र; सम्पदम्—गुण; आसुरीम्—आसुरी प्रकृति।

अनुवाद

हे पृथापुत्र! दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, कठोरता तथा अज्ञान – ये सारे आसुरी स्वभाव वालों के गुण हैं |

तात्पर्य

इस श्लोक में नरक के राजमार्ग का वर्णन है | आसुरी स्वभाव वाले लोग धर्म तथा आत्मविद्या की प्रगति का आडम्बर रचना चाहते हैं, भले ही वे उनके सिद्धान्तों का पालन न करते हों | वे सदैव किसी शिक्षा या प्रचुर सम्पत्ति का अधिकारी होने का दर्प करते हैं | वे चाहते हैं कि अन्य लोग उनकी पूजा करें और सम्मान दिखलाएँ, भले ही वे सम्मान के योग्य न हों | वे छोटी-छोटी बातों पर क्रुद्ध हो जाते हैं खरी-खोटी सुनाते हैं और नम्रता से नहीं बोलते | वे यह नहीं जानते कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए | वे अपनी इच्छानुसार, सनकवश, सारे कार्य करते हैं, वे किसी प्रमाण को नहीं मानते | वे ये आसुरी गुण तभी से प्राप्त करते हैं, जब वे अपनी माताओं के गर्भ में होते हैं और ज्यों-ज्यों वे बढ़ते हैं, त्यों-त्यों ये अशुभ गुण प्रकट होते हैं |