HI/BG 17.11

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 11

अफलाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते ।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥११॥

शब्दार्थ

अफल-आकाङ्क्षिभि:—फल की इच्छा से रहित; यज्ञ:—यज्ञ; विधि-दिष्ट:—शाों के निर्देशानुसार; य:—जो; इज्यते—सम्पन्न किया जाता है; यष्टव्यम्—सम्पन्न किया जाना चाहिए; एव—निश्चय ही; इति—इस प्रकार; मन:—मन में; समाधाय—स्थिर करके; स:—वह; सात्त्विक:—सतोगुणी।

अनुवाद

यज्ञों में वही यज्ञ सात्त्विक होता है,जो शास्त्र के निर्देशानुसार कर्तव्य समझ कर उन लोगों के द्वारा किया जाता है, जो फल की इच्छा नहीं करते ।

तात्पर्य

सामान्यतया यज्ञ किसी प्रयोजन से किया जाता है । लेकिन यहाँ पर यह बताया जाता है कि यज्ञ बिना किसी इच्छा के सम्पन्न किया जाना चाहिए । इसे कर्तव्य समझ कर किया जाना चाहिए । उदाहरणार्थ, मन्दिरों या गिरजाघरों में मनाये जाने वाले अनुष्ठान सामान्यतया भौतिक लाभ को दृष्टि में रख कर किये जाते हैं, लेकिन वह सतोगुण में नहीं है । मनुष्य को चाहिए कि वह कर्तव्य मानकर मन्दिर या गिरजाघर में जाए, भगवान् को नमस्कार करे और फूल और प्रसाद चढ़ाए । प्रत्येक व्यक्ति सोचता है कि ईश्र्वर की पूजा करने के लिए मन्दिर जाना व्यर्थ है । लेकिन शास्त्रों में आर्थिक लाभ के लिए पूजा करने का आदेश नहीं है । मनुष्य को चाहिए कि केवल अर्चविग्रह को नमस्कार करने जाए । इससे मनुष्य सतोगुण को प्राप्त होगा । प्रत्येक सभ्य नागरिक का कर्तव्य है कि वह शास्त्रों के आदेशों का पालन करे और भगवान् को नमस्कार करे ।