HI/BG 17.19

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 19

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥१९॥

शब्दार्थ

मूढ—मूर्ख; ग्राहेण—प्रयत्न से; आत्मन:—अपने ही; यत्—जो; पीडया—उत्पीडऩ द्वारा; क्रियते—की जाती है; तप:—तपस्या; परस्य—अन्यों को; उत्सादन-अर्थम्—विनाश करने के लिए; वा—अथवा; तत्—वह; तामसम्—तमोगुणी; उदाहृतम्—कही जाती है।

अनुवाद

मूर्खतावश आत्म-उत्पीड़न के लिए या अन्यों को विनष्ट करने या हानि पहुँचाने के लिए जो तपस्या की जाती है, वह तामसी कहलाती है ।

तात्पर्य

मूर्खतापूर्ण तपस्या के ऐसे अनेक दृष्टान्त हैं, जैसे कि हिरण्यकशिपु जैसे असुरों ने अमर बनने तथा देवताओं का वध करने के लिए कठिन तप किए । उसने ब्रह्मा से ऐसी ही वस्तुएँ माँगी थीं, लेकिन अन्त में वह भगवान् द्वारा मारा गया । किसी असम्भव वस्तु के लिए तपस्या करना निश्चय ही तामसी तपस्या है ।