HI/BG 17.2
श्लोक 2
- श्रीभगवानुवाच
- त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
- सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥२॥
शब्दार्थ
श्री-भगवान् उवाच—भगवान् ने कहा; त्रि-विधा—तीन प्रकार की; भवति—होती है; श्रद्धा—श्रद्धा; देहिनाम्—देहधारियों की; सा—वह; स्व-भाव-जा—प्रकृति के गुण के अनुसार; सात्त्विकी—सतोगुणी; राजसी—रजोगुणी; च—भी; एव—निश्चय ही; तामसी—तमोगुणी; च—तथा; इति—इस प्रकार; ताम्—उसको; शृणु—मुझसे सुनो।
अनुवाद
भगवान् ने कहा – देहधारी जीव द्वारा अर्जित गुणों के अनुसार उसकी श्रद्धा तीन प्रकार की हो सकती है – सतोगुणी, रजोगुणी अथवा तमोगुणी । अब इसके विषय में मुझसे सुनों ।
तात्पर्य
जो लोग शास्त्रों के विधि-विधानों को जानते हैं, लेकिन आलस्य या कार्यविमुखतावश इनका पालन नहीं करते, वे प्रकृति के गुणों द्वारा शासित होते हैं । वे अपने सतोगुणी, रजोगुणी या तमोगुणी पूर्व कर्मों के अनुसार एक विशेष प्रकार का स्वभाव प्राप्त करते हैं । विभिन्न गुणों के साथ जीव की संगति शाश्र्वत चलती रही है । चूँकि जीव प्रकृति के संसर्ग में रहता है, अतएव वह प्रकृति के गुणों के अनुसार ही विभिन्न प्रकार की मनोवृत्तियाँ अर्जित करता है । लेकिन यदि कोई प्रामाणिक गुरु की संगति करता है, तो उसकी यह मनोवृत्ति बदल सकती है । वह क्रमशः अपनी स्थिति तमोगुण से सतोगुण या रजोगुण से सतोगुण में परिवर्तित कर सकता है । कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति के किसी गुण विशेष में अंध विश्र्वास करने से ही व्यक्ति सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता । उसे प्रामाणिक गुरु की संगति में रहकर बुद्धिपूर्वक बातों पर विचार करना होता है । तभी वह उच्चतर गुण की स्थिति को प्राप्त हो सकता है ।