HI/BG 17.28
श्लोक 28
- अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
- असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥२८॥
शब्दार्थ
अश्रद्धया—श्रद्धारहित; हुतम्—यज्ञ में आहुति किया गया; दत्तम्—प्रदत्त; तप:—तपस्या; तह्रश्वतम्—सम्पन्न; कृतम्—किया गया; च—भी; यत्—जो; असत्—झूठा; इति—इस प्रकार; उच्यते—कहा जाता है; पार्थ—हे पृथापुत्र; न—कभी नहीं; च—भी; तत्—वह; प्रेत्य—मर कर; न उ—न तो; इह—इस जीवन में।
अनुवाद
हे पार्थ! श्रद्धा के बिना यज्ञ,दान या तप के रूप में जो भी किया जाता है, वह नश्र्वर है । वह असत् कहलाता है और इस जन्म तथा अगले जन्म – दोनों में ही व्यर्थ जाता है ।
तात्पर्य
चाहे यज्ञ हो, दान हो या तप हो, बिना आध्यात्मिक लक्ष्य के व्यर्थ रहता है । अतएव इस श्लोक में यह घोषित किया गया है कि ऐसे कार्य कुत्सित हैं । प्रत्येक कार्य कृष्णभावनामृत में रहकर ब्रह्म के लिए किया जाना चाहिए । सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में भगवान् में श्रद्धा की संस्तुति की गई है । ऐसी श्रद्धा तथा समुचित मार्गदर्शन के बिना कोई फल नहीं मिल सकता । समस्त वैदिक आदेशों के पालन का चरम लक्ष्य कृष्ण को जानना है । इस सिद्धान्त का पालन किये बिना कोई सफल नहीं हो सकता । इसीलिए सर्वश्रेष्ठमार्ग यही है कि मनुष्य प्रारम्भ से ही किसी प्रामाणिक गुरु के मार्गदर्शन में कृष्णभावनामृत में कार्य करे । सब प्रकार से सफल होने का यही मार्ग है ।
बद्ध अवस्था में लोग देवताओं, भूतों या कुबेर जैसे यक्षों की पूजा के प्रति आकृष्ट होते हैं । यद्यपि सतोगुण रजोगुण तथा तमोगुण से श्रेष्ठ है, लेकिन जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत को ग्रहण करता है, वह प्रकृति के इन तीनों गुणों को पार कर जाता है । यद्यपि क्रमिक उन्नति की विधि है, किन्तु शुद्ध भक्तों की संगति से यदि कोई कृष्णभावनामृत ग्रहण करता है, तो सर्वश्रेष्ठ मार्ग है । इस अध्याय में इसी की संस्तुति की गई है । इस प्रकार से सफलता पाने के लिए उपयुक्त गुरु प्राप्त करके उसके निर्देशन में प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए । तभी ब्रह्म में श्रद्धा हो सकती है । जब कालक्रम से यह श्रद्धा परिपक्व होती है, तो इसे इश्र्वरप्रेम कहते हैं । यही प्रेम समस्त जीवों का चरम लक्ष्य है । अतएव मनुष्य को चाहिए कि सीधे कृष्णभावनामृत ग्रहण करे । इस सत्रहवें अध्याय का यही संदेश है ।
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय "श्रद्धा के विभाग" का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।