HI/BG 18.19

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 19

ज्ञानं कर्म च कर्ताच त्रिधैव गुणभेदतः ।
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ॥१९॥

शब्दार्थ

ज्ञानम्—ज्ञान; कर्म—कर्म; च—भी; कर्ता—कर्ता; च—भी; त्रिधा—तीन प्रकार का; एव—निश्चय ही; गुण-भेदत:—प्रकृति के विभिन्न गुणों के अनुसार; प्रोच्यते—कहे जाते हैं; गुण-सङ्ख्याने—विभिन्न गुणों के रूप में; यथा-वत्—जिस रूप में हैं उसी में; शृणु—सुनो; तानि—उन सबों को; अपि—भी।

अनुवाद

प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार ही ज्ञान, कर्म तथा कर्ता के तीन-तीन भेद हैं | अब तुम मुझसे इन्हें सुनो |

तात्पर्य

चौदहवें अध्याय में प्रकृति के तीन गुणों का विस्तार से वर्णन हो चुका है | उस अध्याय में कहा गया था कि सतोगुण प्रकाशक होता है, रजोगुण भौतिकवादी तथा तमोगुण आलस्य तथा प्रमाद का प्रेरक होता है | प्रकृति के सारे गुण बन्धनकारी हैं, वे मुक्ति के साधन नहीं हैं | यहाँ तक कि सतोगुण में भी मनुष्य बद्ध रहता है | सत्रहवें अध्याय में विभन्न प्रकार के मनुष्यों द्वारा विभिन्न गुणों में रहकर की जाने वाली विभिन्न प्रकार की पूजा का वर्णन किया गया | इस श्लोक में भगवान् कहते हैं कि वे तीनों गुणों के अनुसार विभिन्न प्रकार के ज्ञान, कर्ता तथा कर्म के विषय में बताना चाहते हैं |