HI/BG 18.36
श्लोक 36
- सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ ।
- अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ॥३६॥
शब्दार्थ
सुखम्—सुख; तु—लेकिन; इदानीम्—अब; त्रि-विधम्—तीन प्रकार का; शृणु—सुनो; मे—मुझसे; भरत-ऋषभ—हे भरतश्रेष्ठ; अभ्यासात्—अभ्यास से; रमते—भोगता है; यत्र—जहाँ; दु:ख—दु:ख का; अन्तम्—अन्त; च—भी; निगच्छति—प्राह्रश्वत करता है।
अनुवाद
हे भरतश्रेष्ठ! अब मुझसे तीन प्रकार के सुखों के विषय में सुनों,जिनके द्वारा बद्धजीव भोग करता है और जिसके द्वारा कभी-कभी दुखों का अन्त हो जाता है |
तात्पर्य
बद्धजीव भौतिक सुख भोगने की बारम्बार चेष्टा करता है | इसप्रकार वह चर्वित चर्वण करता है | लेकिन कभी-कभी ऐसे भोग के अन्तर्गत वह किसीमहापुरुष की संगति से भवबन्धन से मुक्त हो जाता है | दूसरे शब्दों में, बद्धजीवसदा ही किसी न किसी इन्द्रियतृप्ति में लगा रहता है, लेकिन जब सुसंगति से यह समझलेता है कि यह तो एक ही वस्तु की पुनरावृत्ति है और उसमें वास्तविक कृष्णभावनामृतका उदय होता है, तो कभी-कभी वह ऐसे तथाकथित आवृत्तिमूलक सुख से मुक्त हो जाता है |