HI/BG 18.38

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 38

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥३८॥

शब्दार्थ

विषय—इन्द्रिय विषयों; इन्द्रिय—तथा इन्द्रियों के; संयोगात्—संयोग से; यत्—जो; तत्—वह; अग्रे—प्रारम्भ में; अमृत-उपमम्—अमृत के समान; परिणामे—अन्त में; विषम् इव—विष के समान; तत्—वह; सुखम्—सुख; राजसम्—राजसी; स्मृतम्—माना जाता है।

अनुवाद

जो सुख इन्द्रियों द्वारा उनके विषयों के संसर्ग से प्राप्त होता हैऔर प्रारम्भ में अमृततुल्य तथा अन्त में विषतुल्य लगता है, वह रजोगुणी कहलाता है |

तात्पर्य

जब कोई युवक किसी युवती से मिलता है, तो इन्द्रियाँ युवकको प्रेरित करती हैं कि वह उस युवती को देखे, उसका स्पर्श करे और उससे संभोग करे |प्रारम्भ में इन्द्रियों को यह अत्यन्त सुखकर लग सकता है, लेकिन अन्त में या कुछसमय बाद वही विष तुल्य बन जाता है | तब वे विलग हो जाते हैं या उनमें तलाक (विवाह-विच्छेद)हो जाता है | फिर शोक, विषाद इत्यादि उत्पन्न होता है | ऐसा सुख सदैव राजसी होताहै | जो सुख इन्द्रियों और विषयों के संयोग से प्राप्त होता है, वह सदैव दुख काकारण बनता है, अतएव इससे सभी तरह से बचना चाहिए |