HI/BG 18.4
श्लोक 4
- निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
- त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ॥४॥
शब्दार्थ
निश्चयम्—निश्चय को; शृणु—सुनो; मे—मेरे; तत्र—वहाँ; त्यागे—त्याग के विषय में; भरत-सत्-तम—हे भरतश्रेष्ठ; त्याग:—त्याग; हि—निश्चय ही; पुरुष-व्याघ्र—हे मनुष्यों में बाघ; त्रि-विध:—तीन प्रकार का; सम्प्रकीॢतत:—घोषित किया जाता है।
अनुवाद
हे भरतश्रेष्ठ! अब त्याग के विषय में मेरा निर्णय सुनो । हे नरशार्दूल! शास्त्रों में त्याग तीन तरह का बताया गया है ।
तात्पर्य
यद्यपि त्याग के विषय में विभिन्न प्रकार के मत हैं, लेकिन परम पुरुष श्रीकृष्ण अपना निर्णय दे रहे हैं, जिसे अन्तिम माना जाना चाहिए । निस्सन्देह, सारे वेद भगवान् द्वारा प्रदत्त विभिन्न विधान (नियम) हैं । यहाँ पर भगवान् साक्षात् उपस्थित हैं, अतएव उनके वचनों को अन्तिम मान लेना चाहिए । भगवान् कहते हैं कि भौतिक प्रकृति के तीन गुणों में से जिस गुण में त्याग किया जाता है, उसी के अनुसार त्याग का प्रकार समझना चाहिए ।