HI/BG 18.49

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 49

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ॥४९॥

शब्दार्थ

असक्त-बुद्धि:—आसक्ति रहित बुद्धि वाला; सर्वत्र—सभी जगह; जित-आत्मा—मन के ऊपर संयम रखने वाला; विगत-स्पृह:—भौतिक इच्छाओं से रहित; नैष्कम्र्यसिद्धिम्—निष्कर्म की सिद्धि; परमाम्—परम; सन्न्यासेन—संन्यास के द्वारा; अधिगच्छति—प्राह्रश्वत करता है।

अनुवाद

जो आत्मसंयमी तथा अनासक्त है एवं जो समस्त भौतिक भोगों की परवाह नहीं करता, वह संन्यास के अभ्यास द्वारा कर्मफल से मुक्ति की सर्वोच्च सिद्ध-अवस्था प्राप्त कर सकता है |

तात्पर्य

सच्चे संन्यास का अर्थ है कि मनुष्य सदा अपने को परमेश्र्वर का अंश मानकर यह सोचे कि उसे अपने कार्य के फल को भोगने का कोई अधिकार नहीं है | चूँकि वह परमेश्र्वर का अंश है, अतएव उसके कार्य का फल परमेश्र्वर द्वारा भोग जाना चाहिए, यही वास्तव कृष्णभावनामृत है | जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में स्थित होकर कर्म करता है, वही वास्तव में संन्यासी है | ऐसी मनोवृत्ति होने से मनुष्य सन्तुष्ट रहता है क्योंकि वह वास्तव में भगवान् के लिए कार्य कर रहा होता है | इस प्रकार वह किसी भी भौतिक वस्तु के लिए आसक्त नहीं होता, वह भगवान् की सेवा से प्राप्त दिव्य सुख से परे किसी भी वस्तु में आनन्द न लेने का आदी हो जाता है | संन्यासी को पूर्व कार्यकलापों के बन्धन से मुक्त माना जाता है, लेकिन जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में होता है वह बिना संन्यास ग्रहण किये ही यह सिद्धि प्राप्त कर लेता है | यह मनोदशा योगारूढ़ या योग की सिद्धावस्था कहलाती है | जैसा कि तृतीय अध्याय में पुष्टि हुई है – यस्त्वात्मरतिरेव स्यात्– जो व्यक्ति अपने में संतुष्ट रहता है, उसे अपने कर्म से किसी प्रकार के बन्धन का भय नहीं रह जाता |