HI/BG 2.11

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 11

श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥११॥

शब्दार्थ

श्री-भगवान् उवाच—श्रीभगवान् ने कहा; अशोच्यान्—जो शोक के योग्य नहीं हैं; अन्वशोच:—शोक करते हो; त्वम्—तुम; प्रज्ञा-वादान्—पाण्डित्यपूर्ण बातें; च—भी; भाषसे—कहते हो; गत—चले गये, रहित; असून्—प्राण; अगत—नहीं गये; असून्—प्राण; च—भी; न—कभी नहीं; अनुशोचन्ति—शोक करते हैं; पण्डिता:—विद्वान् लोग।

अनुवाद

ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं न रहा होऊँ या तुम न रहे हो अथवा ये समस्त राजा न रहे हों; और न ऐसा है कि भविष्य में हम लोग नहीं रहेंगे |

तात्पर्य

भगवान् ने तत्काल गुरु का पद सँभाला और अपने मित्र को अप्रत्यक्षतः मुर्ख कह कर डाँटा | उन्होंने कहा, “तुम विद्वान की तरह बातें करते हो, किन्तु तुम यह नहीं जानते कि जो विद्वान होता है – अर्थात् जो यह जानता है कि शरीर तथा आत्मा क्या है – वह किसी भी अवस्था में शरीर के लिए, चाहे वह जीवित हो या मृत – शोक नहीं करता |” अगले अध्यायों से यह स्पष्ट हो जायेगा कि ज्ञान का अर्थ पदार्थ तथा आत्मा एवं दोनों के नियामक को जानना है | अर्जुन का तर्क था कि राजनीति या समाजनीति की अपेक्षा धर्म को अधिक महत्त्व मिलना चाहिए, किन्तु उसे यह ज्ञात न था कि पदार्थ, आत्मा तथा परमेश्र्वर का ज्ञान धार्मिक सूत्रों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है | और चूँकि उसमे इस ज्ञान का अभाव था, अतः उसे विद्वान नहीं बनना चाहिए था | और चूँकि वह अत्यधिक विद्वान नहीं था इसीलिए वह शोक के सर्वथा अयोग्य वस्तु के लिए शोक कर रहा था | यह शरीर जन्मता है और आज या कल इसका विनाश निश्चित है, अतः शरीर उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि आत्मा है | जो इस तथ्य को जानता है वही असली विद्वान है और उसके लिए शोक का कोई कारण नहीं हो सकता |