HI/BG 2.16

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 16

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥१६॥

शब्दार्थ

न—नहीं; असत:—असत् का; विद्यते—है; भाव:—चिरस्थायित्व; न—कभी नहीं; अभाव:—परिवर्तनशील गुण; विद्यते—है; सत:—शाश्वत का; उभयो:—दोनों का; अपि—ही; ²ष्ट:—देखा गया; अन्त:—निष्कर्ष; तु—निस्सन्देह; अनयो:—इनका; तत्त्व—सत्य के; दॢशभि:—भविष्यद्रष्टा द्वारा।

अनुवाद

तत्त्वदर्शियों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि असत् (भौतिक शरीर) का तो कोई चिरस्थायित्व नहीं है, किन्तु सत् (आत्मा) अपरिवर्तित रहता है | उन्होंने इन दोनों की प्रकृति के अध्ययन द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है |

तात्पर्य

परिवर्तनशील शरीर का कोई स्थायित्व नहीं है | आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की ने भी यह स्वीकार किया है कि विभिन्न कोशिकाओं की क्रिया-प्रतिक्रिया द्वारा शरीर प्रतिक्षण बदलता रहता है | इस तरह शरीर में वृद्धि तथा वृद्धावस्था आती रहती है | किन्तु शरीर तथा मन में निरन्तर परिवर्तन होने पर भी आत्मा स्थायी रहता है | यही पदार्थ तथा आत्मा का अन्तर है | स्वभावतः शरीर नित्य परिवर्तनशील है और आत्मा शाश्र्वत है | तत्त्वदर्शियों ने, चाहे निर्विशेषवादी हों या सगुणवादी, इस निष्कर्ष की स्थापना की है |विष्णु-पुराण में (२.१२.३८) कहा गया है कि विष्णु तथा उनके धाम स्वयंप्रकाश से प्रकाशित हैं – (ज्योतींषि विष्णुर्भुवनानि विष्णुः) | सत् तथा असत् शब्द आत्मा तथा भौतिक पदार्थ के ही द्योतक हैं | सभी तत्त्वदर्शियों की यह स्थापना है |

यहीं से भगवान् द्वारा अज्ञान से मोहग्रस्त जीवों को उपदेश देने का शुभारम्भ होती है | अज्ञान को हटाने के लिए अराधक और आराध्य के बीच पुनः शाश्र्वत सम्बन्ध स्थापित करना होता है और फिर अंश-रूप जीवों तथा श्रीभगवान् के अन्तर को समझना होता है | कोई भी व्यक्ति आत्मा के अध्ययन द्वारा परमेश्र्वर के स्वभाव को समझ सकता है – आत्मा तथा परमात्मा का अन्तर अंश तथा पूर्ण के अन्तर के रूप में है | वेदान्त-सूत्र तथा श्रीमद्भागवत में परमेश्र्वर को समस्त उद्भवों (प्रकाश) का मूल माना गया है | ऐसे अद्भओं का अनुभव परा तथा अपरा प्राकृतिक-क्रमों द्वारा किया जाता है | जीव का सम्बन्ध परा प्रकृति से है, जैसा कि सातवें अध्याय से स्पष्ट होगा | यद्यपि शक्ति तथा शक्तिमान में कोई अन्तर नहीं है, किन्तु शक्तिमान को परम माना जाता है और शक्ति या प्रकृति को गौण | अतः सारे जीव उसी तरह परमेश्र्वर के सदैव अधीन रहते हैं जिस तरह सेवक स्वामी के या शिष्य गुरु के अधीन रहता है | अज्ञानावस्था में ऐसे स्पष्ट ज्ञान को समझ पाना असम्भव है | अतः ऐसे अज्ञान को दूर करने के लिए सदा सर्वदा के लिए जीवों को प्रवृद्ध करने हेतु भगवान् भगवद्गीता का उपदेश देते हैं |