HI/BG 2.24

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 24

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥२४॥

शब्दार्थ

अच्छेद्य:—न टूटने वाला; अयम्—यह आत्मा; अदाह्य:—न जलाया जा सकने वाला; अयम्—यह आत्मा; अक्लेद्य:—अघुलनशील; अशोष्य:—न सुखाया जा सकने वाला; एव—निश्चय ही; च—तथा; नित्य:—शाश्वत; सर्व-गत:—सर्वव्यापी; स्थाणु:—अपरिवर्तनीय, अविकारी; अचल:—जड़; अयम्—यह आत्मा; सनातन:—सदैव एक सा।

अनुवाद

यह आत्मा अखंडित तथा अघुलनशील है | इसे न तो जलाया जा सकता है, न ही सुखाया जा सकता है | यह शाश्र्वत, सर्वव्यापी, अविकारी, स्थिर तथा सदैव एक सा रहने वाला है |

तात्पर्य

अणु-आत्मा के इतने सारे गुण यही सिद्ध करते हैं कि आत्मा पूर्ण आत्मा का अणु-अंश है और बिना किसी परिवर्तन के निरन्तर उसी तरह बना रहता है | इस प्रसंग में अद्वैतवाद को व्यवहृत करना कठिन है क्योंकि अणु-आत्मा कभी भी परम-आत्मा के साथ मिलकर एक नहीं हो सकता | भौतिक कल्मष से मुक्त होकर अणु-आत्मा भगवान् के तेज की किरणों की आध्यात्मिक स्फुलिंग बनकर रहना चाह सकता है, किन्तु बुद्धिमान जीव तो भगवान् की संगति करने के लिए वैकुण्ठलोक में प्रवेश करता है |

सर्वगत शब्द महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसमें कोई संशय नहीं है कि जीव भगवान् की समग्र सृष्टि में फैले हुए हैं | वे जल, थल, वायु, पृथ्वी के भीतर तथा अग्नि के भीतर भी रहते हैं | जो यह मानता हैं कि वे अग्नि में स्वाहा हो जाते हैं वह ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ कहा गया है कि आत्मा को अग्नि द्वारा जलाया नहीं जा सकता | अतः इसमें सन्देह नहीं कि सूर्यलोक में भी उपयुक्त प्राणी निवास करते हैं | यदि सूर्यलोक निर्जन हो तो सर्वगत शब्द निरर्थक हो जाता है |