HI/BG 2.49
श्लोक 49
- दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय ।
- बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥४९॥
शब्दार्थ
दूरेण—दूर से ही त्याग दो; हि—निश्चय ही; अवरम्—गॢहत, निन्दनीय; कर्म—कर्म; बुद्धि-योगात्—कृष्णभावनामृत के बल पर; धनञ्जय—हे सम्पत्ति को जीतने वाले; बुद्धौ—ऐसी चेतना में; शरणम्—पूर्ण समर्पण, आश्रय; अन्विच्छ—प्रयत्न करो; कृपणा:—कंजूस व्यक्ति; फल-हेतव:—सकाम कर्म की अभिलाषा वाले।
अनुवाद
हे धनंजय! भक्ति के द्वारा समस्त गर्हित कर्मों से दूर रहो और उसी भाव से भगवान् की शरण करो | जो व्यक्ति अपने सकाम कर्म-फलों को भोगना चाहते हैं, वे कृपण हैं |
तात्पर्य
जो व्यक्ति भगवान् के दास रूप में अपने स्वरूप को समझ लेता है वह कृष्णभावनामृत में स्थित रहने के अतिरिक्त सारे कर्मों को छोड़ देता है | जीव के लिए ऐसी भक्ति कर्म का सही मार्ग है | केवल कृपण ही अपने सकाम कर्मों का फल भोगना चाहते हैं, किन्तु इससे वे भवबन्धन में और अधिक फँसते जाते हैं | कृष्णभावनामृत के अतिरिक्त जितने भी कर्म सम्पन्न किये जाते हैं वे गर्हित हैं क्योंकि इससे करता जन्म-मृत्यु के चक्र में लगातार फँसा रहता है | अतः कभी इसकी आकांशा नहीं करनी चाहिए कि मैं कर्म का कारण बनूँ | कृष्णभावनामृत में हर कार्य कृष्ण की तुष्टि के लिए किया जाना चाहिए | कृपणों को यह ज्ञात नहीं है कि दैववश या कठोर श्रम से अर्जित सम्पत्ति का किस तरह सदुपयोग करें | मनुष्य को अपनी सारी शक्ति कृष्णभावनामृत अर्जित करने में लगानी चाहिए | इससे उसका जीवन सफल हो सकेगा | कृपणों की भाँति अभागे व्यक्ति अपनी मानवीय शक्ति को भगवान् की सेवा में नहीं लगाते |