HI/BG 2.55
श्लोक 55
- श्रीभगवानुवाच
- प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
- आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥५५॥
शब्दार्थ
श्री-भगवान् उवाच—श्रीभगवान् ने कहा; प्रजहाति—त्यागता है; यदा—जब; कामान्—इन्द्रियतृह्रिश्वत की इच्छाएँ; सर्वान्—सभी प्रकार की; पार्थ—हे पृथापुत्र; मन:-गतान्—मनोरथ का; आत्मनि—आत्मा की शुद्ध अवस्था में; एव—निश्चय ही; आत्मना—विशुद्ध मन से; तुष्ट:—सन्तुष्ट, प्रसन्न; स्थित-प्रज्ञ:—अध्यात्म में स्थित; तदा—उस समय, तब; उच्यते—कहा जाता है।
अनुवाद
श्रीभगवान् ने कहा – हे पार्थ! जब मनुष्य मनोधर्म से उत्पन्न होने वाली इन्द्रियतृप्ति की समस्त कामनाओं का परित्याग कर देता है और जब इस तरह से विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में सन्तोष प्राप्त करता है तो वह विशुद्ध दिव्य चेतना को प्राप्त (स्थितप्रज्ञ) कहा जाता है |
तात्पर्य
श्रीमद्भागवत में पुष्टि हुई है कि जो मनुष्य पूर्णतया कृष्णभावनाभावित या भगवद्भक्त होता है उसमें महर्षियों के समस्त सद्गुण पाए जाते हैं, किन्तु जो व्यक्ति अध्यात्म में स्थित नहीं होता उसमें एक भी योग्यता नहीं होती क्योंकि वह अपने मनोधर्म पर ही आश्रित रहता है | फलतः यहाँ यह ठीक ही कहा गया है कि व्यक्ति को मनोधर्म द्वारा कल्पित सारी विषय-वासनाओं को त्यागना होता है | कृत्रिम साधन से इनको रोक पाना सम्भव नहीं | किन्तु यदि कोई कृष्णभावनामृत में लगा हो तो सारी विषय-वासनाएँ स्वतः बिना किसी प्रयास के दब जाती हैं | अतः मनुष्य को बिना किसी झिझक के कृष्णभावनामृत में लगना होगा क्योंकि यह भक्ति उसे दिव्य चेतना प्राप्त करने में सहायक होगी | अत्यधिक उन्नत जीवात्मा (महात्मा) अपने आपको परमेश्र्वर का शाश्र्वत दास मानकर आत्मतुष्ट रहता है | ऐसे आध्यात्मिक पुरुष के पास भौतिकता से उत्पन्न भी विषय-वासना फटक नहीं पाती | वह अपने को निरन्तर भगवान् का सेवक मानते हुए सहज रूप में सदैव प्रसन्न रहता है |