HI/BG 2.57

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 57

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥५७॥

शब्दार्थ

य:—जो; सर्वत्र—सभी जगह; अनभिस्नेह:—स्नेहशून्य; तत्—उस; तत्—उस; प्राह्रश्वय—प्राह्रश्वत करके; शुभ—अच्छा; अशुभम्—बुरा; न—कभी नहीं; अभिनन्दति—प्रशंसा करता है; न—कभी नहीं; द्वेष्टि—द्वेष करता है; तस्य—उसका; प्रज्ञा—पूर्ण ज्ञान; प्रतिष्ठिता—अचल।

अनुवाद

इस भौतिक जगत् में जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न अशुभ के प्राप्त होने पर उससे घृणा करता है, वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है |

तात्पर्य

भौतिक जगत् में सदा ही कुछ न कुछ उथल-पुथल होती रहती है – उसका परिणाम अच्छा हो चाहे बुरा | जो ऐसी उथल-पुथल से विचलित नहीं होता, जो अच्छे (शुभ) या बुरे (अशुभ) से अप्रभावित रहता है उसे कृष्णभावनामृत में स्थिर समझना चाहिए | जब तक मनुष्य इस भौतिक संसार में है तब तक अच्छाई या बुराई की सम्भावना रहती है क्योंकि यह संसार द्वैत (द्वंद्वों) से पूर्ण है | किन्तु जो कृष्णभावनामृत में स्थिर है वह अच्छाई या बुराई से अछूता रहता है क्योंकि उसका सरोकार कृष्ण से रहता है जो सर्वमंगलमय हैं | ऐसे कृष्णभावनामृत से मनुष्य पूर्ण ज्ञान की स्थिति प्राप्त कर लेता है, जिसे समाधि कहते हैं |