HI/BG 2.63

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 63

क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥६३॥

शब्दार्थ

क्रोधात्—क्रोध से; भवति—होता है; सम्मोह:—पूर्ण मोह; सम्मोहात्—मोह से; स्मृति—स्मरणशक्ति का; विभ्रम:—मोह; स्मृति-भ्रंशात्—स्मृति के मोह से; बुद्धिनाश:—बुद्धि का विनाश; बुद्धि-नाशात्—तथा बुद्धिनाश से; प्रणश्यति—अध:पतन होता है।

अनुवाद

क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है | जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाति है, तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य भव-कूप में पुनः गिर जाता है |

तात्पर्य

श्रील रूप गोस्वामी ने हमें यह आदेश दिया है –

प्रापञ्चिकतया बुद्धया हरिसम्बन्धितवस्तुनः |

मुमुक्षुभिः परित्यागो वैराग्यं फल्गु कथ्यते ||

(भक्तिरसामृत सिन्धु १.२.२५८)

कृष्णभावनामृत के विकास से मनुष्य जान सकता है कि प्रत्येक वस्तु का उपयोग भगवान् की सेवा के लिए किया जा सकता है | जो कृष्णभावनामृत के ज्ञान से रहित हैं वे कृत्रिम ढंग से भौतिक विषयों से बचने का प्रयास करते हैं, फलतः वे भवबन्धन से मोक्ष की कामना करते हुए भी वैराग्य की चरण अवस्था प्राप्त नहीं कर पाते | उनका तथाकथित वैराग्य फल्गु अर्थात् गौण कहलाता है | इसके विपरीत कृष्णभावनाभावित व्यक्ति जानता है कि प्रत्येक वास्तु का उपयोग भगवान् की सेवा में किस प्रकार किया जाय फलतः वह भौतिक चेतना का शिकार नहीं होता | उदाहरणार्थ, निर्विशेषवादी के अनुसार भगवान् निराकार होने के कारण भोजन नहीं कर सकते, अतः वह अच्छे खाद्यों से बचता रहता है, किन्तु भक्त जानता है कि कृष्ण परम भोक्ता हैं और भक्तिपूर्वक उन पर जो भी भेंट चढ़ाई जाती है, उसे वे खाते हैं | अतः भगवान् को अच्छा भोजन चढाने के बाद भक्त प्रसाद ग्रहण करता है | इस प्रकार हर वस्तु प्राणवान हो जाती है और अधः-पतन का कोई संकट नहीं रहता | भक्त कृष्णभावनामृत में रहकर प्रसाद ग्रहण करता है जबकि अभक्त इसे पदार्थ के रूप में तिरस्कार कर देता है | अतः निर्विशेषवादी अपने कृत्रिम त्याग के कारण जीवन को भोग नहीं पाता और यही कारण है कि मन के थोड़े से विचलन से वह भव-कूप में पुनः आ गिरता है | कहा जाता है कि मुक्ति के स्तर तक पहुँच जाने पर भी ऐसा जीव निचे गिर जाता है, क्योंकि उसे भक्ति का कोई आश्रय नहीं मिलता |