HI/BG 2.9
श्लोक 9
- सञ्जय उवाच
- एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।
- न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥९॥
शब्दार्थ
सञ्जय: उवाच—संजय ने कहा; एवम्—इस प्रकार; उक्त्वा—कहकर; हृषीकेशम्—कृष्ण से, जो इन्द्रियों के स्वामी हैं; गुडाकेश:—अर्जुन, जो अज्ञान को मिटाने वाला है; परन्तप:—अर्जुन, शत्रुओं का दमन करने वाला; न योत्स्ये—नहीं लड़ूँगा; इति—इस प्रकार; गोविन्दम्—इन्द्रियों के आनन्ददायक कृष्ण से; उक्त्वा—कहकर; तूष्णीम्—चुप; बभूव—हो गया; ह—निश्चय ही।
अनुवाद
संजय ने कहा – इस प्रकार कहने के बाद शत्रुओं का दमन करने वाला अर्जुन कृष्ण से बोला, “हे गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा,” और चुप हो गया |
तात्पर्य
धृतराष्ट्र को यह जानकर परम प्रसन्नता हुई होगी कि अर्जुन युद्ध न करके युद्धभूमि छोड़कर भिक्षाटन करने जा रहा है | किन्तु संजय ने उसे पुनः यह कह कर निराश कर दिया कि अर्जुन अपने शत्रुओं को मारने में सक्षम है (परन्तपः) | यद्यपि कुछ समय के लिए अर्जुन अपने पारिवारिक स्नेह के प्रति मिथ्या शोक से अभिभूत था, किन्तु उसने शिष्य रूप में अपने गुरु श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण कर ली | इससे सूचित होता है कि शीघ्र ही वह इस शोक से निवृत्त हो जायेगा और आत्म-साक्षात्कार या कृष्णभावनामृत के पूर्ण ज्ञान से प्रकाशित होकर पुनः युद्ध करेगा | इस तरह धृतराष्ट्र का हर्ष भंग हो जायेगा |