HI/BG 3.18
श्लोक 18
- नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
- न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥१८॥
शब्दार्थ
न—कभी नहीं; एव—निश्चय ही; तस्य—उसका; कृतेन—कार्यसम्पादन से; अर्थ:—प्रयोजन; न—न तो; अकृतेन—कार्य न करने से; इह—इस संसार में; कश्चन—जो कुछ भी; न—कभी नहीं; च—तथा; अस्य—उसका; सर्व-भूतेषु—समस्त जीवों में; कश्चित्—कोई; अर्थ—प्रयोजन; व्यपाश्रय:—शरणागत।
अनुवाद
स्वरुपसिद्ध व्यक्ति के लिए न तो अपने नियत कर्मों को करने की आवश्यकता रह जाती है, न ऐसा कर्म न करने का कोई कारण ही रहता है | उसे किसी अन्य जीव पर निर्भर रहने की आवश्यकता भी नहीं रह जाती |
तात्पर्य
स्वरुपसिद्ध व्यक्ति को कृष्णभावनाभावित कर्म के अतिरिक्त कुछ भी करना नहीं होता | किन्तु यह कृष्णभावनामृत निष्क्रियता भी नहीं है, जैसा कि अगले श्लोकों में बताया जाएगा | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति किसी की शरण ग्रहण नहीं करता – चाहे वह मनुष्य हो या देवता | कृष्णभावनामृत में वह जो भी करता है कि उसके कर्तव्य-सम्पादन के लिए पर्याप्त है |