HI/BG 3.28
श्लोक 28
- तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
- गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥२८॥
शब्दार्थ
तत्त्व-वित्—परम सत्य को जानने वाला; तु—लेकिन; महा-बाहो—हे विशाल भुजाओं वाले; गुण-कर्म—भौतिक प्रभाव के अन्तर्गत कर्म के; विभागयो:—भेद के; गुणा:—इन्द्रियाँ; गुणेषु—इन्द्रियतृह्रिश्वत में; वर्तन्ते—तत्पर रहती हैं; इति—इस प्रकार; मत्वा—मानकर; न—कभी नहीं; सज्जते—आसक्त होता है।
अनुवाद
हे महाबाहो! भक्तिभावमय कर्म तथा सकाम कर्म के भेद को भलीभाँति जानते हुए जो परमसत्य को जानने वाला है, वह कभी भी अपने आपको इन्द्रियों में तथा इन्द्रियतृप्ति में नहीं लगाता |
तात्पर्य
परमसत्य को जानने वाला भौतिक संगति में अपनी विषम स्थिति को जनता है | वह जानता है कि वह भगवान् कृष्ण का अंश है और उसका स्थान इस भौतिक सृष्टि में नहीं होना चाहिए | वह अपने वास्तविक स्वरूप को भगवान् के अंश के रूप में जानता है जो सत् चित् आनंद हैं और उसे यह अनुभूति होती रहती है कि “मैं किसी कारण से देहात्मबुद्धि में फँस चुका हूँ |” अपने अस्तित्व की शुद्ध अवस्था में उसे सारे कार्य भगवान् कृष्ण की सेवा में नियोजित करने चाहिए | फलतः वह अपने आपको कृष्णभावनामृत के कार्यों में लगाता है और भौतिक इन्द्रियों के कार्यों के प्रति स्वभावतः अनासक्त हो जाता है क्योंकि ये परिस्थितिजन्य तथा अस्थायी हैं | वह जानता है कि उसके जीवन की भौतिक दशा भगवान् के नियन्त्रण में है, फलतः वह सभी प्रकार के भौतिक बन्धनों से विचलित नहीं होता क्योंकि वह उन्हें भगवत्कृपा मानता है | श्रीमद्भागवत के अनुसार जो व्यक्ति परमसत्य को ब्रह्म, परमात्मा तथा श्रीभगवान् – इन तीन विभिन्न रूपों में जानता है वही तत्त्ववित् कहलाता है, क्योंकि वह परमेश्र्वर के साथ अपने वास्तविक सम्बन्ध को भी जानता है |