HI/BG 3.32

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 32

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् ।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥३२॥

शब्दार्थ

ये—जो; तु—किन्तु; एतत्—इस; अभ्यसूयन्त:—ईष्र्यावश; न—नहीं; अनुतिष्ठन्ति—नियमित रूप से सम्पन्न करते हैं; मे—मेरा; मतम्—आदेश; सर्व-ज्ञान—सभी प्रकार के ज्ञान में; विमूढान्—पूर्णतया दिग्भ्रमित; तान्—उन्हें; विद्धि—ठीक से जानो; नष्टान्—नष्ट हुए; अचेतस:—कृष्णभावनामृत रहित।

अनुवाद

किन्तु जो ईर्ष्यावश इन उपदेशों की अपेक्षा करते हैं और इनका पालन नहीं करते उन्हें समस्त ज्ञान से रहित, दिग्भ्रमित तथा सिद्धि के प्रयासों में नष्ट-भ्रष्ट समझना चाहिए |

तात्पर्य

यहाँ पर कृष्णभावनाभावित न होने के दोष का स्पष्ट कथन है | जिस प्रकार परम अधिशासी की आज्ञा का उल्लंघन के लिए दण्ड होता है, उसी प्रकार भगवान् के आदेश के प्रति अवज्ञा के लिए भी दण्ड है | अवज्ञाकारी व्यक्ति चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो वह शून्यहृदय होने से आत्मा के प्रति तथा परब्रह्म, परमात्मा एवं श्री भगवान् के प्रति अनभिज्ञ रहता है | अतः ऐसे व्यक्ति से जीवन की सार्थकता की आशा नहीं की जा सकती |