HI/BG 3.5

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 5

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥५॥

शब्दार्थ

न—नहीं; हि—निश्चय ही; कश्चित्—कोई; क्षणम्—क्षणमात्र; अपि—भी; जातु—किसी काल में; तिष्ठति—रहता है; अकर्म-कृत्—बिना कुछ किये; कार्यते—करने के लिए बाध्य होता है; हि—निश्चय ही; अवश:—विवश होकर; कर्म—कर्म; सर्व:—समस्त; प्रकृति-जै:—प्रकृति के गुणों से उत्पन्न; गुणै:—गुणों के द्वारा।

अनुवाद

प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति से अर्जित गुणों के अनुसार विवश होकर कर्म करना पड़ता है, अतः कोई भी क्षणभर के लिए भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता |

तात्पर्य

यह देहधारी जीवन का प्रश्न नहीं है, अपितु आत्मा का यह स्वभाव है कि वह सदैव सक्रिय रहता है | आत्मा की अनुपस्थिति में भौतिक शरीर हिल भी नहीं सकता | यह शरीर मृत-वाहन के समान है जो आत्मा द्वारा चालित होता है क्योंकि आत्मा सदैव गतिशील (सक्रीय) रहता है और वह एक क्षण के लिए भी नहीं रुक सकता | अतः आत्मा को कृष्णभावनामृत के सत्कर्म में प्रवृत्त रखना चाहिए अन्यथा वह माया द्वारा शासित कार्यों में प्रवृत्त होता रहेगा | माया के संसर्ग में आकर आत्मा भौतिक गुण प्राप्त कर लेता है और आत्मा को ऐसे आकर्षणों से शुद्ध करने के लिए यह आवश्यक है कि शास्त्रों द्वारा आदिष्ट कर्मों में इसे संलग्न रखा जाय | किन्तु यदि आत्मा कृष्णभावनामृत के अपने स्वभाविक कर्म में निरत रहता है, तो वह जो भी करता है उसके लिए कल्याणप्रद होता है | श्रीमद्भागवत (१.५.१७) द्वारा इसकी पुष्टि हुई है –

त्यक्त्वा स्वधर्मं चरणाम्बुजं हरेर्भजन्नपक्कोऽथ पतेत्ततो यदि |

यत्र क्क वाभद्रमभूदमुष्य किं को वार्थ आप्तोऽभजतां स्वधर्मतः ||

"यदि कोई कृष्णभावनामृत अंगीकार कर लेता है तो भले ही वह शास्त्रानुमोदित कर्मों को न करे अथवा ठीक से भक्ति न करे और चाहे वह पतित भी हो जाय तो इसमें उसकी हानि या बुराई नहीं होगी | किन्तु यदि वह शास्त्रानुमोदित सारे कार्य करे और कृष्णभावनाभावित न हो तो ये सारे कार्य उसके किस लाभ के हैं?"अतः कृष्णभावनामृत के इस स्तर तक पहुँचने के लिए शुद्धिकरण की प्रक्रिया आवश्यक है | अतएव संन्यास या कोई भी शुद्धिकारी पद्धति कृष्णभावनामृत के चरम लक्ष्य तक पहुँचने में सहायता देने के लिए है, क्योंकि उसके बिना सब कुछ व्यर्थ है |