HI/BG 4.36

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 36

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥३६॥

शब्दार्थ

अपि—भी; चेत्—यदि; असि—तुम हो; पापेभ्य:—पापियों से; सर्वेभ्य:—समस्त; पाप-कृत्-तम:—सर्वाधिक पापी; सर्वम्—ऐसे समस्त पापकर्म; ज्ञान-ह्रश्वलवेन—दिव्यज्ञान की नाव द्वारा; एव—निश्चय ही; वृजिनम्—दुखों के सागर को; सन्तरिष्यसि—पूर्णतया पार कर जाओगे।

अनुवाद

यदि तुम्हें समस्त पापियों में भी सर्वाधिक पापी समझा जाये तो भी तुम दिव्यज्ञान रूपी नाव में स्थित होकर दुख-सागर को पार करने में समर्थ होगे ।

तात्पर्य

श्री कृष्ण के सम्बन्ध में अपनी स्वाभाविक स्थिति का सही-सही ज्ञान इतना उत्तम होता है कि अज्ञान-सागर में चलने वाले जीवन-संघर्ष से मनुष्य तुरन्त ही ऊपर उठ सकता है । यह भौतिक जगत् कभी-कभी अज्ञान सागर मान लिया जाता है तो कभी जलता हुआ जंगल । सागर में कोई कितना ही कुशल तैराक क्यों न हो, जीवन-संघर्ष अत्यन्त कठिन है । यदि कोई संघर्षरत तैरने वाले को आगे बढ़कर समुद्र से निकाल लेता है तो वह सबसे बड़ा रक्षक है । भगवान् से प्राप्त पूर्णज्ञान मुक्ति का पथ है । कृष्णभावनामृत की नाव अत्यन्त सुगम है, किन्तु उसी के साथ-साथ अत्यन्त उदात्त भी ।