HI/BG 4.38

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 38

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥३८॥

शब्दार्थ

न—कुछ भी नहीं; हि—निश्चय ही; ज्ञानेन—ज्ञान से; स²शम्—तुलना में; पवित्रम्—पवित्र; इह—इस संसार में; विद्यते—है; तत्—उस; स्वयम्—अपने आप; योग—भक्ति में; संसिद्ध:—परिपक्व होने पर; कालेन—यथासमय; आत्मनि—अपने आप में, अन्तर में; विन्दति—आस्वादन करता है।

अनुवाद

इस संसार में दिव्यज्ञान के समान कुछ भी उदात्त तथा शुद्ध नहीं है | ऐसा ज्ञान समस्त योग का परिपक्व फल है | जो व्यक्ति भक्ति में सिद्ध हो जाता है, वह यथासमय अपने अन्तर में इस ज्ञान का आस्वादन करता है |

तात्पर्य

जब हम दिव्यज्ञान की बात करते हैं तो हमारा प्रयोजन अध्यात्मिक ज्ञान से होता है | निस्सन्देह दिव्यज्ञान के समान कुछ भी उदात्त और शुद्ध नहीं है | अज्ञान ही हमारे बन्धन का कारण है और ज्ञान हमारी मुक्ति का | यह ज्ञान भक्ति का परिपक्व फल है | जब कोई दिव्यज्ञान की अवस्था प्राप्त कर लेता है तो उसे अन्यत्र शान्ति खोजने की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि वह मन ही मन शान्ति का आनन्द लेता रहता है | दुसरे शब्दों में, ज्ञान तथा शान्ति का पर्यवसान कृष्णभावनामृत में होता है | भगवद्गीता के सन्देश की यही चरम परिणति है |