HI/BG 5.19

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 19

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥१९॥

शब्दार्थ

इह—इस जीवन में; एव—निश्चय ही; तै:—उनके द्वारा; जित:—जीता हुआ; सर्ग:—जन्म तथा मृत्यु; येषाम्—जिनका; साम्ये—समता में; स्थितम्—स्थित; मन:—मन; निर्दोषम्—दोषरहित; हि—निश्चय ही; समम्—समान; ब्रह्म—ब्रह्म की तरह; तस्मात्—अत:; ब्रह्मणि—परमेश्वर में; ते—वे; स्थिता:—स्थित हैं।

अनुवाद

जिनके मन एकत्व तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बन्धनों को पहले ही जीत लिया है | वे ब्रह्म के समान निर्दोष हैं और सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं |

तात्पर्य

जैसा कि ऊपर कहा गया है मानसिक समता आत्म-साक्षात्कार का लक्षण है | जिन्होंने ऐसी अवस्था प्राप्त कर ली है, उन्हें भौतिक बंधनों पर, विशेषतया जन्म तथा मृत्यु पर, विजय प्राप्त किए हुए मानना चाहिए | जब तक मनुष्य शरीर को आत्मस्वरूप मानता है, वह बद्धजीव माना जाता है, किन्तु ज्योंही वह आत्म-साक्षात्कार द्वारा समचित्तता की अवस्था को प्राप्त कर लेता है, वह बद्धजीवन से मुक्त हो जाता है | दूसरे शब्दों में, उसे इस भौतिक जगत् में जन्म नहीं लेना पड़ता, अपितु अपनी मृत्यु के बाद वह आध्यात्मिक लोक को जाता है | भगवान् निर्दोष हैं क्योंकि वे आसक्ति अथवा घृणा से रहित हैं | इसी प्रकार जब जीव आसक्ति अथवा घृणा से रहित होता है तो वह भी निर्दोष बन जाता है और वैकुण्ठ जाने का अधिकारी हो जाता है | ऐसे व्यक्तियों को पहले से ही मुक्त मानना चाहिए | उनके लक्षण आगे बतलाये गये हैं |