HI/BG 5.22
श्लोक 22
- ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
- आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥२२॥
शब्दार्थ
ये—जो; हि—निश्चय ही; संस्पर्श-जा:—भौतिक इन्द्रियों के स्पर्श से उत्पन्न; भोगा:—भोग; दु:ख—दुख; योनय:—स्रोत, कारण; एव—निश्चय ही; ते—वे; आदि—प्रारम्भ; अन्तवन्त:—अन्तवाले; कौन्तेय—हे कुन्तीपुत्र; न—कभी नहीं; तेषु—उनमें; रमते—आनन्द लेता है; बुध:—बुद्धिमान् मनुष्य।
अनुवाद
बुद्धिमान् मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जो कि भौतिक इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं | हे कुन्तीपुत्र! ऐसे भोगों का आदि तथा अन्त होता है, अतः चतुर व्यक्ति उनमें आनन्द नहीं लेता |
तात्पर्य
भौतिक इन्द्रियसुख उन इन्द्रियों के स्पर्श से उद्भूत् हैं जो नाशवान हैं क्योंकि शरीर स्वयं नाशवान है | मुक्तात्मा किसी नाशवान वस्तु में रूचि नहीं रखता | दिव्या आनन्द के सुखों से भलीभाँति अवगत वह भला मिथ्या सुख के लिए क्यों सहमत होगा ? पद्मपुराण में कहा गया है –
रमन्ते योगिनोऽनन्ते सत्यानन्दे चिदात्मनि |
इति रामपदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते ||
"योगीजन परमसत्य में रमण करते हुए अनन्त दिव्यसुख प्राप्त करते हैं इसीलिए परमसत्य को भी राम कहा जाता है |"
भागवत में (५.५.१) भी कहा गया है –
नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान् कामानर्हते विड्भुजां ये |
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धयेद् यस्माद् ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् ||
"हे पुत्रो! इस मनुष्ययोनि में इन्द्रियसुख के लिए अधिक श्रम करना व्यर्थ है | ऐसा सुख तो सूकरों को भी प्राप्य है | इसकी अपेक्षा तुम्हें इस जीवन में तप करना चाहिए, जिससे तुम्हारा जीवन पवित्र हो जाय और तुम असीम दिव्यसुख प्राप्त कर सको |"
अतः जो यथार्थ योगी या दिव्य ज्ञानी हैं वे इन्द्रियसुखों की ओर आकृष्ट नहीं होते क्योंकि ये निरन्तर भवरोग के कारण हैं | वो भौतिकसुख के प्रति जितना ही आसक्त होता है, उसे उतने ही अधिक भौतिक दुख मिलते हैं |