HI/BG 6.13-14

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोकस 13-14

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥१३॥
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥१४॥

शब्दार्थ

समम्—सीधा; काय—शरीर; शिर:—सिर; ग्रीवम्—तथा गर्दन को; धारयन्—रखते हुए; अचलम्—अचल; स्थिर:—शान्त; सम्प्रेक्ष्य—देखकर; नासिका—नाक के;अग्रम्—अग्रभाग को; स्वम्—अपनी; दिश:—सभी दिशाओं में; च—भी; अनवलोकयन्—न देखते हुए; प्रशान्त—अविचलित; आत्मा—मन; विगत-भी:—भय से रहित; ब्रह्मचारि-व्रते—ब्रह्मचर्य व्रत में; स्थित:—स्थित; मन:—मन को; संयम्य—पूर्णतया दमित करके; मत्—मुझ (कृष्ण) में; चित्त:—मन को केन्द्रित करते हुए; युक्त:—वास्तविक योगी; आसीत—बैठे; मत्—मुझमें; पर:—चरम लक्ष्य।

अनुवाद

योगाभ्यास करने वाले को चाहिए कि वह अपने शरीर, गर्दन तथा सर को सीधा रखे और नाक के अगले सिरे पर दृष्टि लगाए | इस प्रकार वह अविचलित तथा दमित मन से, भयरहित, विषयीजीवन से पूर्णतया मुक्त होकर अपने हृदय में मेरा चिन्तन करे और मुझे हि अपना चरमलक्ष्य बनाए |

तात्पर्य

जीवन का उद्देश्य कृष्ण को जानना है जो प्रत्येक जीव के हृदय में चतुर्भुज परमात्मा रूप में स्थित हैं | योगाभ्यास का प्रयोजन विष्णु के इसी अन्तर्यामी रूप की खोज करने तथा देखने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है | अन्तर्यामी विष्णुमूर्ति प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में निवास करने वाले कृष्ण का स्वांश रूप है | जो इस विष्णुमूर्ति की अनुभूति करने के अतिरिक्त किसी अन्य कपटयोग में लगा रहता है, वह निस्सन्देह अपने समय का अपव्यय करता है | कृष्ण ही जीवन के परम लक्ष्य है | हृदय के भीतर इस विष्णुमूर्ति की अनुभूति प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्यव्रत अनिवार्य है, अतः मनुष्य को चाहिए कि घर छोड़ दे और किसी एकान्त स्थान में बताई गई विधि से आसीन होकर रहे | नित्यप्रति घर में या अन्यत्र मैथुन-भोग करते हुए और तथाकथित योग की कक्षा में जाने मात्र से कोई योगी नहीं हो जाता | उसे मन को संयमित करने का अभ्यास करना होता है और सभी प्रकार की इन्द्रियतृप्ति से, जिसमें मैथुन-जीवन मुख्य है, बचना होता है | महान ऋषि याज्ञवल्क्य ने ब्रह्मचर्य के नियमों में बताया है –

कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा |

सर्वत्र मैथुनत्यागो ब्रह्मचर्यं प्रचक्षते ||

"सभी कालों में, सभी अवस्थाओं में तथा सभी स्थानों में मनसा वाचा कर्मणा मैथुन-भोग से पूर्णतया दूर रहने में सहायता करना ही ब्रह्मचर्यव्रत का लक्ष्य है |" मैथुन में प्रवृत्त रहकर योगाभ्यास नहीं किया जा सकता | इसीलिए बचपन से जब मैथुन का कोई ज्ञान भी नहीं होता ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी जाती है | पाँच वर्ष की आयु में बच्चों को गुरुकुल भेजा जाता है, जहाँ गुरु उन्हें ब्रह्मचारी बनने के दृढ़ नियमों की शिक्षा देता है | ऐसे अभ्यास के बिना किसी भी योग में उन्नति नहीं की जा सकती, चाहे वह ध्यान हो, या कि ज्ञान या भक्ति | किन्तु जो व्यक्ति विवाहित जीवन के विधि-विधानों का पालन करता है और अपनी हीपतनी से मैथुन-सम्बन्ध रखता है वह भी ब्रह्मचारी कहलाता है | ऐसे संयमशील गृहस्थ-ब्रह्मचारी को भक्ति सम्प्रदाय में स्वीकार किया जा सकता है, किन्तु ज्ञान तथा ध्यान सम्प्रदाय वाले ऐसे गृहस्थ-ब्रह्मचारी को भी प्रवेश नहीं देते | उनके लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य अनिवार्य है | भक्ति सम्प्रदाय में गृहस्थ-ब्रह्मचारी को संयमित मैथुन की अनुमति रहती है, क्योंकि भक्ति सम्प्रदाय इतना शक्तिशाली है कि भगवान् की सेवा में लगे रहने से वह स्वतः ही मैथुन का आकर्षण त्याग देता है |

भगवद्गीता में (२.५९) कहा गया है –

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः |

रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ||

जहाँ अन्यों को विषयभोग से दूर रहने के लिए बाध्य किया जाता है वहीं भगवद्भक्त भगवद्रसास्वादन के कारण इन्द्रियतृप्ति से स्वतः विरक्त हो जाता है | भक्त को छोड़कर अन्य किसी को इस अनुपम रस का ज्ञान नहीं होता |

विगत-भीः पूर्ण कृष्णभावनाभावित हुए बिना मनुष्य निर्भय नहीं हो सकता | बद्धजीव अपनी विकृत स्मृति अथवा कृष्ण के साथ अपने शाश्र्वत सम्बन्ध की विस्मृति के करण भयभीत रहता है | भागवतका (११.२.३७) कथन है – भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्याद् ईशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः| कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ही योग का पूर्ण अभ्यास कर सकता है और चूँकि योगाभ्यास का चरम लक्ष्य अन्तःकरण में भगवान् का दर्शन पाना है, अतः कृष्णभावनाभावित व्यक्ति पहले से ही समस्त योगियों से श्रेष्ठ होता है | यहाँ पर वर्णित योगविधि के नियम तथाकथित लोकप्रिय योग-समितियों से भिन्न हैं |