HI/BG 6.17
श्लोक 17
- युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
- युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥१७॥
शब्दार्थ
युक्त—नियमित; आहार—भोजन; विहारस्य—आमोद-प्रमोद का; युक्त—नियमित; चेष्टस्य—जीवन निर्वाह के लिए कर्म करने वाले का; कर्मसु—कर्म करने में; युक्त—नियमित; स्वह्रश्वन-अवबोधस्य—नींद तथा जागरण का; योग:—योगाभ्यास; भवति—होता है; दु:ख—कष्टों को नष्ट करने वाला।
अनुवाद
जो खाने, सोने, आमोद-प्रमोद तथा काम करने की आदतों में नियमित रहता है, वह योगाभ्यास द्वारा समस्त भौतिक क्लेशों को नष्ट कर सकता है |
तात्पर्य
खाने, सोने, रक्षा करने तथा मैथुन करने में – जो शरीर की आवश्यकताएँ हैं – अति करने से योगाभ्यास की प्रगति रुक जाती है | जहाँ तक खाने का प्रश्न है, इसे तो प्रसादम् या पवित्रकृत भोजन के रूप में नियमित बनाया जा सकता है | भगवद्गीता (९.२६) के अनुसार भगवान् कृष्ण को शाक, फूल, फल, अन्न , दुग्ध आदि भेंट किये जाते हैं | इस प्रकार एक कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को ऐसा भोजन न करने का स्वतः प्रशिक्षण प्राप्त रहता है, जो मनुष्य के खाने योग्य नहीं होता या सतोगुणी नहीं होता | जहाँ तक सोने का प्रश्न हैं, कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कृष्णभावनामृत में कर्म करने में निरन्तर सतर्क रहता है, अतः निद्रा में वह व्यर्थ समय नहीं गँवाता | अव्यर्थ-कालत्वम्– कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपना एक मिनट का समय भी भगवान् की सेवा के बिना नहीं बिताना चाहता | अतः वह कम से कम सोता है | इसके आदर्श श्रील रूप गोस्वामी हैं, जो कृष्ण की सेवा में निरन्तर लगे रहते थे और दिनभर में दो घंटे से अधिक नहीं सोते थे, और कभी-कभी तो उतना भी नहीं सोते थे | ठाकुर हरिदास तो अपनी माला में तीन लाख नामों का जप किये बिना न तो प्रसाद ग्रहण करते थे और न सोते ही थे | जहाँ तक कार्य का प्रश्न है, कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ऐसा कोई भी कार्य नहीं करता जो कृष्ण से सम्बन्धित न हो | इस प्रकार उसका कार्य सदैव नियमित रहता है और इन्द्रियतृप्ति से अदूषित | चूँकि कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के लिए इन्द्रियतृप्ति का प्रश्न ही नहीं उठता, अतः उसे तनिक भी भौतिक अवकाश नहीं मिलता | चूँकि वह अपने कार्य, वचन, निद्रा, जागृति तथा अन्य शारीरिक कार्यों में नियमित रहता है, अतः उसे कोई भौतिक दुःख नहीं सताता |