HI/BG 6.30
श्लोक 30
- यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
- तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥३०॥
शब्दार्थ
य:—जो; माम्—मुझको; पश्यति—देखता है; सर्वत्र—सभी जगह; सर्वम्—प्रत्येक वस्तु को; च—तथा; मयि—मुझमें; पश्यति—देखता है; तस्य—उसके लिए; अहम्—मैं; न—नहीं; प्रणश्यामि—अ²श्य होता हूँ; स:—वह; च—भी; मे—मेरे लिए; न—नहीं; प्रणश्यति—अ²श्य होता है।
अनुवाद
जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है उसके लिए न तो मैं कभी अदृश्य होता हूँ और न वह मेरे लिए अदृश्य होता है |
तात्पर्य
कृष्णभावनाभावित व्यक्ति भगवान् कृष्ण को सर्वत्र देखता है और सारी वस्तुओं को कृष्ण में देखता है | ऐसा व्यक्ति भले ही प्रकृति की पृथक्-पृथक् अभिव्यक्तियों को देखता प्रतीत हो, किन्तु वह प्रत्येक दशा में इस कृष्णभावनामृत से अवगत रहता है कि प्रत्येक वस्तु कृष्ण की ही शक्ति की अभिव्यक्ति है | कृष्णभावनामृत का मूल सिद्धान्त ही यह है कि कृष्ण के बिना कोई अस्तित्व नहीं है और कृष्ण ही सर्वेश्र्वर हैं | कृष्णभावनामृत कृष्ण-प्रेम का विकास है – ऐसी स्थिति जो भौतिक मोक्ष से भी परे है | आत्मसाक्षात्कार के ऊपर कृष्णभावनामृत की इस अवस्था में भक्त कृष्ण से इस अर्थ में एकरूप हो जाता है कि उसके लिए कृष्ण ही सब कुछ हो जाते हैं और भक्त प्रेममय कृष्ण से पूरित हो उठता है | तब भगवान् तथा भक्त के बीच अन्तरंग सम्बन्ध स्थापित हो जाता है | उस अवस्था में जीव को विनष्ट नहीं किया जा सकता और न भगवान् भक्त की दृष्टि से ओझल होते हैं | कृष्ण में तादात्म्य होना आध्यात्मिक लय (आत्मविनाश) है | भक्त कभी भी ऐसी विपदा नहीं उठाता | ब्रह्मसंहिता (५.३८) में कहा गया है-
प्रेमाञ्जनच्छुरित भक्तिविलोचनेन
सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति |
यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ||
"मैं आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ, जिनका दर्शन भक्तगण प्रेमरूपी अंजन लगे नेत्रों से करते हैं | वे भक्त के हृदय में स्थित श्यामसुन्दर रूप में देखे जाते हैं |"
इस अवस्था में न तो भगवान् कृष्ण अपने भक्त की दृष्टि से ओझल होते हैं और न भक्त उनकी दृष्टि से ओझल हो पाते हैं | यही बात योगी के लिए भीसत्य है क्योंकि वह अपने हृदय के भीतर परमात्मा रूप में भगवान् का दर्शन करता रहता है | ऐसा योगी शुद्ध भक्त बन जाता है और अपने अन्दर भगवान् को देखे बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता |